Uttarakhand and Baalparv Phooldei: अच्छी खबर- लोकपर्व फूलदेई को शासन ने किया बालपर्व घोषित, 'फूलदेई और फ्योंली की कहानी' में नजर आती है देवभूमि उत्तराखंड की अनूठी संस्कृति
Himwant Educational News: उत्तराखंड की सांस्कृतिक विरासत और परंपराओं को संरक्षण देने की दिशा में राज्य सरकार ने एक और शानदार कदम उठाया है। जी हां लोके संस्कृति के पर्व फूलदेई को अब प्रतिवर्ष बालपर्व के रूप में मनाया जाएगा। फूल संक्रांति पर आयोजित होने वाले फूलदेई पर्व पर राज्य के विद्यालय में बालपर्व के रूप में अनेक संस्कृति कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे। उत्तराखंड सरकार के इस निर्णय पर अनेक संगठनों से जुड़े लोगों और उत्तराखंड की संस्कृति से लगाव रखने वाले लोगों ने प्रसन्नता व्यक्त की है। शिक्षकों और विद्यार्थियों के लिए समर्पित वेव पत्रिका 'हिमवंत' के साथ यह जानकारी साझा करते हुए अपर निदेशक विद्यालयी शिक्षा महावीर सिंह बिष्ट ने लोकपर्व फूलदेई को शासन द्वारा बालपर्व घोषित किए जाने पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए समस्त स्कूली छात्र-छात्राओं, (school students and teachers) शिक्षकों और अभिभावकों को बालपर्व फुलदेई की शुभकामनाएं दी हैं।
शासन ने दिए यह निर्देश, फूलदेई घोषित राज्य बालपर्व
शासन द्वारा फूल संक्रांति / फूलदेई को प्रतिवर्ष बालपर्व के रूप में मनाये जाने के आदेश जारी किए है। संस्कृति, धर्मस्व, तीर्थाटन प्रबन्धन एवं धार्मिक मेला अनुभाग, उत्तराखंड शासन द्वारा 12 जुलाई को गढवाल और कुमाऊ दोनों मंडलों के आयुक्त, मंडलीय पर शिक्षा निदेशक महिला सशक्तिकरण और बाल विकास को जारी निर्देशों में कहां है कि उत्तराखण्ड राज्य में प्रतिवर्ष फाल्गुन/चैत्र माह में मनाये जाने वाला फूलदेई पर्व / फूल संक्रांति का त्यौहार पूरे विश्व में एक अनूठा लोकपर्व है। राज्य के पहाड़ी जिलों में बसंत ऋतु के समय मनाये जाने वाले फूल संक्रांति / फूलदेई पर्व जीवन में एक नई उमंग एवं नई उम्मीद लेकर आता है। फूल संक्रांति / फूलदेई जैसे पारम्परिक त्यौहार न केवल आज की पीढ़ी को प्रकृति के सन्निकट ले जाते है बल्कि प्रकृति के विभिन्न रंगों से भी उन्हें परिचित कराते हैं।
उक्त लोकपर्व की पारम्परिक महत्ता के दृष्टिगत सम्यक् विचारोपरान्त फूलदेई लोकपर्व को प्रतिवर्ष 'बालपर्व' के रूप में मनाये जाने का निर्णय लिया गया है। फूल संक्रांति / फूलदेई के अवसर पर प्रतिवर्ष समस्त जिलों के विद्यालयों में बालपर्व के रूप में सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये जायें।
क्या है फुलदेई पर्व
Uttarakhand and Baalparv Phooldei: फूलदेई त्योहार को फुलारी और फूल सक्रांति भी कहते हैं, यह पर्व प्रकृति से जुड़ा हुआ है। इन दिनों पहाड़ों के वनों में भी फूलों की बहार रहती है। चारों ओर छाई हरियाली और कई प्रकार के रंगबिरंगे खिले फूल प्रकृति की खूबसूरती में चार-चांद लगाते हैं। हिंदू पंचांग के अनुसार चैत्र महीने से ही नववर्ष होता है। नववर्ष के स्वागत के लिए कई तरह के फूल खिलते हैं। उत्तराखंड में चैत्र मास की संक्रांति अर्थात पहले दिन से ही बसंत आगमन की खुशी में फूलों का त्योहार फूलदेई मनाये जाने की परंपरा रही है।
Baalparv Phooldei: चैत्र के महीने में फुलारी पर्व के अवसर पर छोटे-छोटे बच्चे सूर्योदय के साथ ही घर-घर की देहली पर रंग-बिरंगे फूल को बिखेरते घर की खुशहाली, सुख-शांति की कामना के गीत गाते हैं। जिसके बाद घर के लोग बच्चों की फूलो की टोकरी में गुड़, चावल और पैसे डालते हैं। यह पर्व पर्वतीय परंपरा में कन्याओं की पूजा और क्षेत्र की समृद्धि की प्रतीक मानी जाती है। इस दिन घरों में विभिन्न प्रकार के पकवान भी बनाए जाते हैं आओ बच्चों को परोसे जाते हैं। फूलों का यह पर्व कहीं पूरे चैत्र मास तक चलता है तो कहीं केवल आठ दिनों तक ही आयोजित होता है।
ऐसे मनाया जाता है फुलदेई पर्व
Uttarakhand Culture: बच्चे फ्योंली, बुरांस और दूसरे स्थानीय रंग बिरंगे फूलों को चुनकर लाते हैं और उनसे सजी फूलकंडी लेकर घोघा माता की डोली के साथ घर-घर जाकर फूल डालते हैं। घोघा माता को फूलों की देवी माना जाता है। फूलों के इस देवी की पूजा बच्चे ही करते हैं। पर्व के अंतिम दिन बच्चे घोघा माता की बड़ी पूजा करते हैं। इस अवधि में इकठ्ठे हुए चावल, दाल और भेंट राशि से सामूहिक भोज पकाया जाता है।
फूलदेई पर्व और फ्योंली की कहानी
इस लोकपर्व के बारे में मान्यता है कि फ्योंली नामक एक वनकन्या थी। वो जंगल मे रहती थी। जंगल के सभी लोग उसके दोस्त थे। उसकी वजह जंगल मे हरियाली और समृद्धि थी। एक दिन एक देश का राजकुमार उस जंगल मे आया। उसे फ्योंली से प्रेम हो गया और उससे शादी करके अपने देश ले गया। फ्योंली को अपने ससुराल में मायके की याद आने लगी, अपने जंगल के मित्रों की याद आने लगी। उधर जंगल में फ्योंली बिना पेड़ पौधें मुरझाने लगे, जंगली जानवर उदास रहने लगे। उधर फ्योंली की सास उसे बहुत परेशान करती थी। फ्योंली कि सास उसे मायके जाने नहीं देती थी।
फ्योंली अपनी सास से और अपने पति से उसे मायके भेजने की प्रार्थना करती थी। मगर उसके ससुराल वालों ने उसे नही भेजा। फ्योंली मायके की याद में तड़पते रहती है। मायके की याद में तड़पकर एक दिन फ्योंली मर जाती है। उसके ससुराल वाले राजकुमारी को उसके मायके के पास ही दफना देते हैं। जिस जगह पर राजकुमारी को दफनाया गया था वहां पर कुछ दिनों के बाद ही पीले रंग का एक सुंदर फूल खिलता है जिसे फ्योंली नाम दिया जाता है।
केदारघाटी में यह किस्सा है प्रचलित
Kedarghati Uttarakhand में फूलदेई को लेकर यह धारणा भी काफी प्रचलित है की एक बार भगवान श्री कृष्ण और देवी रुक्मिणी केदारघाटी से विहार कर रहे थे। तब देवी रुक्मिणी भगवान श्री कृष्ण को खूब चिढ़ा देती हैं। जिससे भगवान कृष्ण नाराज होकर छिप जाते हैं। देवी रुक्मणी भगवान को ढूंढ-ढूंढ कर परेशान हो जाती हैं। तब देवी रुक्मिणी छोटे बच्चों से रोज सबकी देहरी फूलों से सजाने को बोलती हैं। ताकि बच्चों द्वारा फूलों से स्वागत देख कर गुस्सा छोड़ दें। बच्चों द्वारा फूलों की सजायी देहरी व आंगन देखकर भगवान कृष्ण का मन पसीज जाता है और वो सामने आ जाते हैं।
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