History of Garhwal: मुगलों की नाक काटने वाली गढ़वाल की रानी कर्णावती, इतिहास के पन्नों में दर्ज है 'नक कट्टी रानी' की वीरता।

 इतिहास में कर्णावती नाम की दो रानियों का उल्लेख मिलता है। जिनमे एक चित्तौड के शासक राणा संग्राम सिंह की पत्नी थी। जिन्होंने अपने राज्य को गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह के हमले से बचाने के लिए मुगल बादशाह हुमायूं को राखी भेजी थी, जबकि दूसरी थी गढ़वाल की रानी कर्णावती। इतिहास में गढवाल की रानी का उल्लेख 'नक कट्टी राणी' यानी नाक काटने वाली रानी के नाम से मिलता है। गढ़वाल की इस रानी ने पूरी मुगल सेना की सचमुच नाक कटवायी थी। कई इतिहासकारों ने इस रानी का उल्लेख नाक काटने वाली रानी के रूप में किया है।

    गढ़वाल की रानी कर्णावती ने गढ़वाल में अपने नाबालिग बेटे पृथ्वीपतिशाह के बदले उस समय शासन की बागडोर खुद  संभाल ली थी, जब दिल्ली में मुगल सम्राट शाहजहां का साम्राज्य फलफूल रहा था। शाहजहां के कार्यकाल पर बादशाहनामा या पादशाहनामा लिखने वाले अब्दुल हमीद लाहौरी ने भी गढ़वाल की इस रानी का जिक्र किया है। शम्सुद्दौला खान ने 'मासिर अल उमरा' में गढ़वाल की रानी कर्णावती  का उल्लेख किया है। उधर इटली के लेखक निकोलाओ मानुची जब सत्रहवीं सदी में भारत आये थे तब उन्होंने शाहजहां के पुत्र औरंगजेब के समय मुगल दरबार में काम किया था। उन्होंने अपनी किताब 'स्टोरिया डो मोगोर' यानि 'मुगल इंडिया' में गढ़वाल की एक ऐसी रानी के बारे में उल्लेख किया है जिसने मुगल सैनिकों की नाट काटी थी।

        ऐतिहासिक तथ्यों से पता चलता है कि रिखोला लोदी और माधोसिंह जैसे सेनापतियों की मौत के बाद महिपतशाह कमजोर पड़ गए और कुछ समय बाद उनकी मृत्यु हो गयी। महिपतशाह की मृत्यु के पश्चात उनकी विधवा रानी कर्णावती ने सत्ता संभाली। उनके पुत्र पृथ्वीपतिशाह तब केवल सात साल के थे। इसलिए अगले कुछ वर्षों तक रानी कर्णावती ने एक संरक्षिका शासिका के रूप में शासन संभाला। कर्णावती एक विदूषी महिला होने के साथ साथ निर्भीक एवं पराक्रमी भी थी। इसी लिए अपने पुत्र के नाबालिग होने के कारण वह गढवाल रियासत के हित के लिए अपने पति की मृत्यु पर सती नहीं हुईं और बडे धैर्य और साहस के साथ उन्होंने पृथ्वीपति शाह के संरक्षक के रूप में राजसत्ता संभाली। रानी कर्णावती ने राजकाज संभालने के बाद अपनी देखरेख में शीघ्र ही शासन व्यवस्था को सुद्यढ किया ! गढवाल के प्राचीन ग्रंथों और गीतों में रानी कर्णावती की प्रशस्ति में उनके द्वारा निर्मित बावलियों, तालाबों, कुओं और मंदिर आदि का वर्णन आता है।

 गढ़वाल के एतिहासिक तथ्यों से ज्ञात होता है कि एक ऐतिहासिक संयोग से वर्ष 1634 में बदरीनाथ धाम की यात्रा के दौरान छत्रपति शिवाजी के गुरु समर्थ रामदास की गढवाल के श्रीनगर में सिख गुरु हरगोविन्द सिंह से भेंट हुई। इन दो महापुरषों की यह भेंट बडी महत्वपूर्ण थी क्योंकि दोनों का एक ही उद्देश्य था, मुगलों के बर्बर शासन से मुक्ति प्राप्त करके हिन्दू धर्म की रक्षा करना। देवदूत के रूप में समर्थ गुरु स्वामी रामदास 1634 में श्रीनगर गढवाल पहुंचे और रानी कर्णावती को उनसे भेंट करने का अवसर प्राप्त हुआ। समर्थ गुरु रामदास ने रानी कर्णावती से पूछा कि क्या पतित पावनी गंगा की सप्त धाराओं से सिंचित भूखंड में यह शक्ति है कि वैदिक धर्म एवं राष्ट्र की मार्यादा की रक्षा के लिये मुगल शक्ति से लोहा ले सके। इस पर रानी कर्णावती ने उनके समक्ष रियासत के साथ ही हिंदुत्व की रक्षा का संकल्प लिया था। इससे पहले जब महिपतशाह गढ़वाल के राजा थे तब 14 फरवरी 1628 को शाहजहां का राज्याभिषेक हुआ था। जब वह गद्दी पर बैठे तो देश के तमाम राजा आगरा पहुंचे थे। महिपतशाह आगरा नहीं गये। इसके दो कारण माने जाते हैं। पहला यह कि पहाड़ से आगरा तक जाना तब आसान नहीं था और दूसरा उन्हें मुगल शासन की अधीनता स्वीकार नहीं थी। कहा जाता है कि शाहजहां इससे नाराज हो गया। मुगल शासकों को गुप्तचरों ने यह भी बताया था कि गढ़वाल की राजधानी श्रीनगर में सोने की खदानें हैं। महीपति शाह के शासनकाल में मुगल सेना गढवाल विजय के बारे में सोचती भी नहीं थी, लेकिन जब वह युध्द में मारे गए और रानी कर्णावती ने गढवाल का शासन संभाला तब मुगल शासकों को गढ़वाल की ओर बढ़ने का अच्छा मौका मिल गया। शाहजहां को समर्थ गुरु रामदास और गुरु हरगोविन्द सिंह के श्रीनगर पहुंचने और रानी कर्णावती से सलाह मशविरा करने की खबर भी लग गयी थी। लिहाजा नजाबत खां नाम के एक मुगल सरदार को गढवाल पर हमले की जिम्मेदारी सौंपी गयी, और वह 1635 में एक विशाल सेना लेकर आक्रमण के लिये निकल पड़ा।  उसके साथ पैदल सैनिकों के अलावा घुडसवार सैनिक भी मौजूद थे ।

     रानी कर्णावती सैन्यबल में मुगलों से कमजोर थी। ऐसी विषम परिस्थितियों में रानी कर्णावती ने सीधा मुकाबला करने के बजाय कूटनीति से काम लेना उचित समझा। गढ़वाल की रानी कर्णावती ने उन्हें अपनी सीमा में घुसने दिया लेकिन जब वे वर्तमान समय के लक्ष्मणझूला से आगे बढ़े तो उनके आगे और पीछे जाने के रास्ते रोक दिये गये। गंगा के किनारे और पहाड़ी रास्तों से अनभिज्ञ मुगल सैनिकों के पास खाने की सामग्री समाप्त होने लगी। कर्णावती ने उनके लिये रसद भेजने के सभी रास्ते भी बंद कर दिए थे। बहुत जल्दी मुगल सेना कमजोर पड़ने लगी और ऐसे में सेनापति ने गढ़वाल की रानी के पास संधि का संदेश भेजा लेकिन उसे ठुकरा दिया गया ! मुगल सेना की स्थिति बदतर हो गयी थी ! रानी चाहती तो उसके सभी सैनिकों का खत्म कर गंगा में प्रवाहित कर देती लेकिन उन्होंने मुगलों को सजा देने का एक अनोखा तरीका निकाला। रानी ने संदेश भिजवाया कि वह सैनिकों को जीवनदान दे सकती है लेकिन इसके लिये उन्हें अपनी नाक कटवानी होगी। सैनिकों को भी लगा कि नाक कट भी गयी तो क्या जिंदगी तो रहेगी ! मुगल सैनिकों के हथियार छीन लिए गये और आखिर में उन सभी की एक एक करके नाक काट दी गयी। कहा जाता है कि जिन सैनिकों की नाक का​टी गयी उनमें सेनापति नजाबत खान भी शामिल था। वह ​इससे काफी शर्मिंदा  था और उसने मैदानों की तरफ लौटते समय अपनी जान दे दी। उस समय रानी कर्णाव​ती की सेना में एक अधिकारी दोस्तबेग हुआ करता था जिसने मुगल सेना को परास्त करने और उसके सैनिकों को नाक कटवाने की कड़ी सजा दिलाने में अहम भूमिका निभायी थी।

      इस तरह मोहन चट्टी में मुगल सेना को हराने के बाद रानी कर्णावती ने जल्द ही पूरी दून घाटी को भी पुन: गढवाल राज्य के अधिकार क्षेत्र में ले लिया। गढवाल की उस नक कट्टी रानी ने गढवाल राज्य की विजय पताका फिर शान के साथ फहरा दी और समर्थ गुरु रामदास को जो वचन दिया था, उसे पूरा करके दिखा दिया। रानी कर्णावती के राज्य की संरक्षिका के रूप में 1640 तक शासनारूढ रहने के तथ्य मिलते हैं लेकिन यह अधिक संभव है कि युवराज पृथ्वीपति शाह के बालिग होने पर उन्होंने 1642 में उन्हें शासनाधिकार सौंप दिया होगा और अपना बाकी जीवन एक वरिष्ठ परामर्शदात्री के रूप में महल में ही बिताया होगा।

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    कुछ इतिहासकारों के अनुसार कांगड़ा आर्मी के कमांडर नजाबत खान की अगुवाई वाली मुगल सेना ने जब दून घाटी और चंडीघाटी (वर्तमान समय में लक्ष्मणझूला) को अपने कब्जे में कर दिया तब रानी कर्णावती ने उसके पास संदेश भिजवाया कि वह मुगल शासक शाहजहां के लिये जल्द ही दस लाख रूपये उपहार के रूप में भेज देगी। नजाबत खान लगभग एक महीने तक पैसे का इंतजार करता रहा। इस बीच कर्णावती की सेना को उसके सभी रास्ते बंद करने का मौका मिल गया। मुगल सेना के पास खाद्य सामग्री की कमी पड़ गयी और इस बीच उसके सैनिक एक अज्ञात बीमारी से पीड़ित होने लगे। गढ़वाली सेना ने पहले ही सभी रास्ते बंद कर दिये थे और उन्होंने मुगलों पर आक्रमण कर दिया। रानी के आदेश पर सैनिकों की नाक काट दी गयी। नजाबत खान जंगलों से होता हुआ मुरादाबाद तक पहुंचा था। कहा जाता है कि शाहजहां इस हार से काफी शर्मसार हुआ था। शाहजहां ने बाद में अरीज खान को गढ़वाल पर हमले के लिये भेजा था लेकिन वह भी दून घाटी से आगे नहीं बढ़ पाया था । बाद में शाहजहां के बेटे औरंगजेब ने भी गढ़वाल पर हमले की नाकाम कोशिश की थी लेकिन उसके मंसूबे कभी कामयाब न हो सके। इस लेख से सम्बंधित जानकारी और सुझाव नीचे कमेंट बॉक्स में अवश्य पोस्ट करें। धन्यवाद।


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