Class 12th Economics Long Answer Question by Sushil Dobhal Sir. अर्थशास्त्र दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

 Class 12th Economics Long Answer Question by Sushil Dobhal Sir. अर्थशास्त्र दीर्घ उत्तरीय प्रश्न 

Part 1

1. पूर्ण प्रतियोगिता में मूल्य निर्धारण कैसे होता है ? (How is pLorice determination under perfect competition ?)

उत्तर मार्शल के अनुसार पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति में किसी वस्तु का मूल्य उस वस्तु की माँग एवं पूर्ति की सापेक्षिक शक्तियों के द्वारा निर्धारित होती है।
मार्शल के अनसार ही कैंची की दोनों पत्तियों से कपडा काटने का काम होता है। किंत यह नहीं कहा जा सकता है कि इसमें से केवल ऊपर वाली या केवल नीचे वाली पत्ती ही कपड़ा काटने का काम कर रही है। उसी प्रकार यह भी नहीं कहा जा सकता कि मूल्य का निर्धारण अकेले केवल माँग (उपयोगिता) के द्वारा या अकेले केवल पूर्ति (उत्पादन लागत) के द्वारा ही होता है।
एक उदाहरण द्वारा देखा जा सकता है 

मूल्य

वस्तु की माँग

पूर्ति

10 रुपये

200

800

रुपये

400

600

रुपये

500

500

रुपये

600

400

रुपये

800

200

उपर्युक्त उदाहरण से स्पष्ट है कि रुपये के मूल्य पर माँग एवं पूर्ति दोनों 500 हो जाते हैं अर्थात् दोनों में संतुलन स्थापित हो जाते हैं।
चित्र द्वारा उपर्युक्त उदाहरण को देखा जा सकता है-Description: How is price determination under perfect competition ?).चित्र में DD माँग की रेखा और SS पूर्ति की रेखा है। दोनों रेखाएँ आपस में Pबिंदु पर मिलती है। इस बिंदु पर माँग एवं पूर्ति दोनों बराबर दो जाते हैं। इसे साम्य बिंदु कहा जाता है और इस बिंदु पर जो मूल्य निर्धारित होता है उसे साम्य मूल्य कहा जाता है।
इस प्रकार पूर्ण प्रतियोगिता में किसी वस्तु का मूल्य उस वस्तु की माँग एवं पूर्ति की सापेक्षिक शक्तियों द्वारा इनके संतुलन बिंदु पर निर्धारित होता है।


2. सीमांत उपयोगिता ह्रास नियम की व्याख्या करें। इस नियम के लागू होने के आवश्यक शर्त कौन-कौन सी है ? (Explain the law of Diminishing Marginal utility ? What are the necessary conditions for the operation of this law.)

उत्तर सीमांत उपयोगिता ह्रास नियम जिसे आवश्यकता संतुष्टि का नियम कहते हैं। इसका प्रतिपादन आस्ट्रियन अर्थशास्त्री गोसेन ने किया था। मनुष्य की आवश्यकताएँ अनंत होती हैं किंतु इनमें से किसी भी एक आवश्यकता विशेष की पूर्ण रूप से संतुष्टि की जा सकती है। आवश्यकताओं की इसी विशेषता पर उपभोग का प्रमुख नियम सीमांत उपयोगिता ह्रास नियम आधारित है।
सीमांत उपयोगिता ह्रास नियम के अनुसार, “अन्य बातें पूर्ववत रहने पर जैसे-जैसे किसी वस्तु की अतिरिक्त इकाइयों का उपभोग किया जाता है वैसे-वैसे उनसे प्राप्त होने वाली अतिरिक्त उपयोगिता क्रमशः घटती जाती है।
मार्शल के अनुसार, “एक मनुष्य के पास किसी वस्तु की जितनी मात्रा हो उसमें निश्चित वृद्धि के फलस्वरूप उस व्यक्ति को जो अतिरिक्त उपयोगिता प्राप्त होती है वह उसकी मात्रा में होने वाली प्रत्येक वृद्धि के साथ कम होती जाती है।

सीमांत उपयोगिता ह्रास नियम को एक चित्र एवं तालिका द्वारा हम देख सकते हैं 

सीमांत उपयोगिता ह्रास नियम के लागू होने के आवश्यक शर्त एवं मान्यताएँ
(Necessary conditions for the application of law of diminishing utility or Assumptions)

(i). वस्तु का उपभोग लगातार में होना चाहिए।
(ii). वस्तु की उपभोग इकाइयों का आकार पर्याप्त होना चाहिए।
(iii). सभी वस्तु इकाइयों का आकार व बनावट में एकसमान अथवा समरूप होनी चाहिए।
(iv). वस्तु के उपलब्ध स्थानापन्नों का मूल्य स्थिर होना चाहिए।
(v). उपभोक्ता की आय एवं उपभोग प्रवृत्ति स्थिर होनी चाहिए।
(vi). उपभोक्ता के फैशनरुचि एवं स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं होना चाहिए।


3. सम सीमांत उपयोगिता नियम क्या है ? (What is Law of Equi-Marginal Utility ?)

उत्तर सम-सीमांत उपयोगिता नियम वास्तव में उपयोगिता ह्रास नियम पर आधारित है। सम-सीमांत उपयोगिता का नियम मार्शल के नाम से जाना जाता है।
मार्शल ने सम-सीमांत उपयोगिता नियम की व्याख्या करते हुए कहा है— “यदि एक व्यक्ति के पास कोई ऐसी वस्तु है जिसे वह अनेक प्रयोगों में ला सकता है तो वह इन प्रयोगों के बीच इस प्रकार वितरण करेगा ताकि सभी प्रयोगों में इसकी सीमांत उपयोगिता बराबर रहे।
मार्शल ने एक ऐसी वस्तु का जिक्र किया है जिसका की प्रयोग अनेक कार्यों में किया जा सकता है।
जब उपभोक्ता एक से अधिक वस्तुओं पर व्यय करता है तो सम-सीमांत उपयोगिता नियम के अनुसार उपभोक्ता को विभिन्न वस्तुओं पर इस प्रकार खर्च करना चाहिए कि विभिन्न वस्तुओं की सीमांत उपयोगिताएँ उनके मूल्य के आनुपातिक हो। उदाहरण के लिए यदि उपभोक्ता अपनी आय को केवल तीन वस्तुओं A, B एवं पर खर्च करता है तो सम-सीमांत उपयोगिता नियम के अनसारउपभोक्ता को अधिकतम संतोष तब प्राप्त होगा जबDescription: सीमांत उपयोगिता

 

इस नियम की व्याख्या एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जाता है। किसी उपभोक्ता के पास छः रुपये है जिसे वह A, B और पर खर्च करना चाहता है। यह मान लिया जाता है कि इन तीनों वस्तुओं को प्रत्येक इकाई का मूल्य एक रुपया है। इन वस्तुओं से उपभोक्ता को जो सीमांत उपयोगिता मिलती है इसे निम्न तालिका द्वारा देखा जा सकता है 

वस्तुओं की इकाइयाँ

की सीमांत उपयोगिता

की सीमांत उपयोगिता

की सीमांत उपयोगिता

1

30

25

15

2

20

15

10

3

15

5

5

4

10

3

3

5

8

2

2

तालिका से स्पष्ट है कि तीनों वस्तुओं की क्रमागत इकाइयों से प्राप्त सीमांत उपयोगिता क्रमशः घटती जाती है क्योंकि सीमांत उपयोगिता ह्रास नियम लागू होता है।

सम-सीमांत उपयोगिता नियम को चित्र द्वारा देखा जा सकता है-Description: सम-सीमांत उपयोगिता


4. कुल स्थिर लागतकुल परिवर्तनशील लागत और कुल लागत का क्या अर्थ है इनके संबंध को समझाएं। (What are total fixed cost, total variable cost and total cost ? How are they related ?) .

उत्तर स्थिर लागत उत्पादन के आकार से अप्रभावित रहती है। उत्पादन स्तर शून्य होने पर भी उत्पादक को स्थिर लागतों का भुगतान वहन करना पड़ता है। चित्र द्वारा देख सकते हैं चित्र में उत्पादन स्तर Oq अथवा Oq1 पर स्थिर लागत OK ही है। यही कारण है कि अल्पकाल में कुल स्थिर लागत रेखा X-अक्ष के समानान्तर एक पड़ी रेखा के रूप में होती है।

कुल परिवर्तनशील लागत  परिवर्तनशील लागत का आकार उत्पादन की मात्रा पर निर्भर करता है। जैसे-जैसे उत्पादन के आकार के वृद्धि होती है। वैसे-वैसे परिवर्तनशील लागतों में भी वृद्धि होती है।चित्र द्वारा देख सकते हैं-Description: कुल परिवर्तनशील लागत

चित्र में TVC (Total variable cost) रेखा दिखाई गई है। शन्य उत्पादन स्तर पर परिवर्तनशील लागत शून्य होती है। चित्र में q1, q2, q3, q4, q5 उत्पादन स्तरों पर कुल परिवर्तनशील लागते क्रमशः k1q2, k2q2, k3q3, k4q4, k5q5प्रदर्शित करती है जिससे स्पष्ट है कि TVC उत्पादन के आकार के साथ-साथ बढ़ती है।
कुल लागत (Total cost)
अल्पकाल में,
कुल लागत = कुल स्थिर लागत + कुल परिवर्तनशील लागत
TC = TFC + TVCDescription: (Total variable cost)

चित्र में TFC एवं TVC रेखाओं को जोड़कर कुल लागत रेखा प्राप्त की गई है।TC और TVC रेखाएँ परस्पर समानान्तर रूप से आगे बढ़ती है क्योंकि TC और TVC का अंतर TFC को बताता है और TFC सदा स्थिर होती है।


5. कुल आगमसीमान्त आगम और औसत आगम को उदाहरण देकर समझाइए। (Explain Total Revenue, Marginal Revenue and Average Revenue with the help of illustrations.)

उत्तर कुल आगम (Total Revenue) – किसी फर्म का कुल आगम वस्तु की एक इकाई कीमत तथा कुल विक्रय की गयी इकाइयों के गुणनफल द्वारा प्राप्त किया जाता है।
कुल आगम = कुल बिक्री से प्राप्त राशि = बिक्री इकाइयाँ प्रति इकाई मूल्य
उदाहरणएक विक्रेता वस्तु की एक इकाई Rs. 10 में बेचता है और यदि वह कुल 500 इकाइयाँ बेचता है तब इस दशा में कुल आगम = 10 x 500 = Rs. 5000

सीमांत आगम (Marginal Revenue)—उत्पादक या फर्म कोवस्तु की एक अतिरिक्त इकाई की बिक्री में जो अतिरिक्त आगम प्राप्त होता हैउसे सीमांत आगम कहते हैं।
यदि TRn-1 = (n-1) इकाइयों से प्राप्त कुल आगम
TRn = n इकाइयों से प्राप्त कुल आगम
MRn = TRn – TRn-1Description: MR = ∆(TR)/∆Q

औसत आगम (Average Revenue) — औसत आगम से मतलब उत्पादन की प्रति इकाई बिक्री से प्राप्त होने वाला आगम। इस प्रकार कुल आगम की बिक्री की गई इकाइयों की संख्या से भाग देने पर औसत आगम प्राप्त होता है।

AR= TR/Q
औसत आगम सदा वस्तु की प्रति इकाई की कीमत को व्यक्त करता है।


6. औसत लागत तथा सीमांत लागत के आपसी संबंध की चित्र की सहायता से व्याख्या करें। (Explain the relationship between Average cost and Marginal cost with the help of diagram.)

उत्तर औसत लागत (Average cost) औसत लागत से मतलब प्रति इकाई उत्पादन लागत से है। औसत लागत जानने के लिए कुल लागत को कुल उत्पादित इकाइयों से भाग कर दिया जाता है। जैसे—10 टेबुल की कुल उत्पादन लागत 1000 रु० है तोDescription: औसत लागत

 

सीमांत लागत (Marginal cost) — वस्तु की एक अतिरिक्त इकाई उत्पन्न करने से कुल लागत में जो वृद्धि होती है उसे सीमांत लागत कहते हैं।

औसत लागत और सीमान्त लागत में संबंध  सीमांत लागतऔसत लागत में परिवर्तन लाता है न कि औसत लागतसीमान्त लागत में परिवर्तन लाता है। औसत लागत और सीमान्त लागत दोनों कुल लागत से निकाले जाते हैं । कुल लागत को समस्त इकाइयों से भाग देकर औसत लागत निकाला जाता है वहां एक अतिरिक्त इकाई के उत्पादन से कुल लागत में होने वाली वृद्धि सीमांत लागत होती है। अतः यदि सीमांत लागत गिरती है तो यह औसत लागत को गिराती है और यदि सीमांत लागत बढ़ती है तो औसत लागत को ऊपर खींचती है जिससे औसत लागत बढ़ती है।

औसत लागत तथा सीमांत लागत के संबंध को चित्र द्वारा देखा जा सकता है 
चित्र से स्पष्ट है कि 
(i). जब तक MC, AC से कम हैतब तक AC वक्र गिरता है और MC वक्र, AC वक्र को उसके न्यूनतम बिन्दु पर काटने से पहले नीचे गिरता है (चित्र में बिन्दु तक )Description: औसत लागत(ii). जब MC वक्र गिरता है तो AC वक्र की तुलना में अधिक तेजी से गिरकर अपने न्यूनतम बिन्दु पर पहुँच जाता है। उसके बाद MC वक्र से तक बढ़ता जाता है जबकि AC वक्र से तक अभी भी गिर रहा होता है।

(iii).उठता हुआ MC वक्र, AC वक्र को इसके न्यूनतम बिन्दु पर काटकर ऊपर बढ़ता जाता है क्योंकि MC वक्र, AC वक्र के ऊपर है।


7. अर्थव्यवस्था के प्राथमिकद्वितीयक और तृतीयक क्षेत्रों से आप क्या समझते हैं ? (What do you mean by primary sector, secondary sector and tertiary sector.)

उत्तर एक अर्थव्यवस्था की विभिन्न उत्पादकीय पहचान तथा वर्गीकरण है। विशाल दृष्टिकोण से एक अर्थव्यवस्था को निम्न भागों में वर्गीकरण किया जा सकता है
(1). प्राथमिक क्षेत्र
(ii). द्वितीयक क्षेत्र या गौण क्षेत्र
(iii). तृतीयक क्षेत्र।

(1). प्राथमिक क्षेत्र – अर्थव्यवस्था के प्राथमिक क्षेत्र वह क्षेत्र है जो प्राकृतिक साधनों जैसे — भूमिवनखनन आदि साधनों का शोषण करके उत्पादन पैदा करता है। इसमें सभी कृषि तथा उससे संबंधित क्रियाएँ जैसे मछली पालनवन तथा खनन का उत्पादन शामिल किया जाता है।

(ii). द्वितीयक क्षेत्र या गौण क्षेत्र  अर्थव्यवस्था के द्वितीयक क्षेत्र या गौण क्षेत्र को निर्माण क्षेत्र भी कहा जाता है। यह एक प्रकार की वस्तु को मनुष्यमशीन तथा पदार्थों द्वारा दूसरी वस्तु में बदलता है। उदाहरण के रूप में हम कह सकते हैं कपास से कपड़ा बनाना अथवा गन्ने से चीनी बनाना आदि।

(iii). तृतीयक क्षेत्र  अर्थव्यवस्था के इस क्षेत्र को सेवा क्षेत्र भी कहा जाता है। सेवा क्षेत्र प्राथमिक तथा गौण क्षेत्र को सेवाएँ प्रदान करता है। इसमें बैंकबीमायातायातसंचारव्यापार तथा वाणिज्य आदि को शामिल किया जाता है।

प्राथमिक क्षेत्रद्वितीयक क्षेत्र और तृतीयक क्षेत्र में अंतर को हम इस प्रकार देख सकते हैं 

(i). प्राथमिक क्षेत्र में प्राकृतिक साधनों का शोषण करता है तथा इससे वस्तुएँ तथा सेवाएँ पैदा किया जाता है जबकि द्वितीयक क्षेत्र एक वस्तु को दूसरी वस्तु में परिवर्तन करता है जिससे उपभोक्ताओं को अधिक संतुष्टि मिलती है और तृतीयक क्षेत्र प्राथमिक तथा द्वितीयक क्षेत्र के कार्यों को सफलतापूर्वक चलाने में सहायता करता है।

(ii). प्राथमिक क्षेत्र में असंगठित तथा परंपरागत तरीके अपनायी जाती है जबकि द्वितीयक क्षेत्र सिर्फ संगठित तकनीक अपनाती है और तृतीयक क्षेत्र संगठित या आधुनिक तकनीक अपनाती है।

(iii). प्राथमिक क्षेत्र में श्रम विभाजन की कोई संभावना नहीं होती है जबकि द्वितीयक क्षेत्र में उत्पादन के लिए जटिल श्रम विभाजन आवश्यक होता है और तृतीय क्षेत्र जटिल तथा भौगोलिक श्रम विभाजन का प्रयोग करता है।

(iv). प्राथमिक क्षेत्र को कृषि तथा संबंधित क्षेत्र के नाम से जाना जाता है जबकि द्वितीयक क्षेत्र को निर्मित क्षेत्र और तृतीयक क्षेत्र को सेवा क्षेत्र के नाम से जाना जाता है।


8. अर्थव्यवस्था के केंद्रीय समस्याओं का उल्लेख करें। (Discuss the central problems of an economy.)

उत्तर अर्थव्यवस्था से मतलब उस आर्थिक प्रणाली से है जिसके द्वारा समाज की समस्त आर्थिक क्रियाओं का संचालन किया जाता है। प्रत्येक देश किसी न किसी आर्थिक प्रणाली पर आधारित है। आर्थिक प्रणाली के प्रमुख रूप हैंपूँजीवाद और समाजवाद एवं मिश्रित अर्थव्यवस्था। आर्थिक प्रणाली में भिन्नता के अनुसार अर्थव्यवस्था का संचालन अलग-अलग होता है किंतु साध नों की सीमितता एवं उनके वैकल्पिक प्रयोगों तथा आवश्यकताओं की अनन्तता के कारण ही साध नों एवं साध्यों के बीच उपयुक्त तालमेल बैठाने की समस्याएँ प्रत्येक आर्थिक प्रणाली में विद्यमान रहती है जिसे हम अर्थव्यवस्था की केंद्रीय समस्याएँ कहते हैं। केंद्रीय आर्थिक समस्या को चार मौलिक आर्थिक समस्याओं में बाँटा गया है।

(i). क्या उत्पादन करना है तथा कितनी मात्रा में अर्थव्यवस्था के केंद्रीय समस्याओं में सबसे प्रमुख समस्या यह है कि प्रत्येक समाज को यह निर्णय लेना होता है कि कौन-सा माल का उत्पादन करना तथा कितनी मात्रा में उत्पादन करना है।

(ii). कैसे उत्पादन करना हैअर्थव्यवस्था के दूसरी प्रमुख केंद्रीय समस्या यह उत्पन्न होती है कि वस्त का उत्पादन कैसे करना है। किसी वस्तु के उत्पादन की अनेक वैकल्पिक तकनीक है। उत्पादन में तकनीक के चुनाव की मुख्य समस्या होती है। उत्पादन की तकनीक दो प र होती है—(A) श्रम प्रधान तकनीक (B) पूँजी प्रधान तकनीक। श्रम प्रधान तकनीक में श्रम का अधिक मात्रा में किया जाता है। जबकि पूँजी प्रधान तकनीक में पूँजी का अधिक प्रयोग होता

(iii). केंद्रीय समस्या का तीसरा प्रमुख समस्या यह भी है कि किसके लिए उत्पादन किया जाए। इस समस्या में यह महत्त्वपूर्ण बात सामने आती है कि उत्पादन के बाद वितरण कैसे किया जाए।

(iv)आर्थिक विकास के लिए क्या-क्या प्रावधान किये जाने चाहिए अर्थव्यवस्थाके केंद्रीय समस्या में यह भी एक प्रमुख समस्या है कि आर्थिक विकास के लिए कौन-कौन से प्रावधान किया जाए जिससे अर्थव्यवस्था में आर्थिक विकास हो। इसके लिए समाज को यह निर्णय लेना होता है कि कितनी बचत तथा निवेश भविष्य की प्रगति के लिए किया जाना चाहिए ताकि आर्थिक विकास हो सके।


9. उत्पादन फलन क्या हैइसकी प्रमुख विशेषताएँ बतलाएँ। (What is Production function ? Discuss the main characteristics?)

उत्तर उपादानों एवं उत्पादनों के फलनात्मक संबंध को उत्पादन फलन कहा जाता उत्पादन फलन हमे यह बताता है कि समय की एक निश्चित अवधि में उपादानों के परिवर्तन से उत्पादन आकार में किस प्रकार और कितनी मात्रा में परिवर्तन होता है। इस प्रकार उपादानों की मात्रा और उत्पादन की मात्रा के मौलिक संबंध को उत्पादन फलन कहते हैं। उत्पादन केवल भौतिक मात्रात्मक संबंध पर आधारित है। इसमें मूल्यों का समावेश नहीं होता है।
गणितीय रूप में उत्पादन फलन,
Qx = f(A, B, C, D)
वाट्सन के शब्दों में, “एक फर्म के भौतिक उत्पादन और उत्पादन के भौतिक साधनों के संबंध को उत्पादन फलन कहा जाता है।

मान्यताएँ  उत्पादन फलन निम्न मान्यताओं पर आधारित है-
(i). उत्पादन फलन का संबंध किसी निश्चित समयावधि से होता है।
(ii). दीर्घकाल में उत्पादन फलन के सभी उपादान परिवर्तनशील होते हैं।
(iii). अल्पकाल में तकनीकी स्तर में कोई परिवर्तन नहीं होता है।
(iv). उत्पादन फलन के सभी उत्पादन अल्पकाल में परिवर्तन नहीं किये जा सकते हैं।

उत्पादन फलन की विशेषताएँ  उत्पादन फलन की निम्न विशेषताएँ हैं 
(i). उत्पादन फलन उत्पत्ति के साधनों एवं उत्पादन के भौतिक मात्रात्मक संबंध को बताता है।
(ii). उत्पादन फलन में उपादानों एवं उत्पादन की कीमतों का कोई समावेश नहीं होता है।
(iii)उत्पादन फलन का संबंध एक समयावधि से होता है।
(iv). उत्पादन फलन स्थिर तकनीकी दशा पर आधारित है।
(v). जब फर्म अपने उत्पादन फलन के कंछ उपादानों को स्थिर रखती है।
(vi). फर्म दीर्घकाल में जब सभी उपादानों को परिवर्तित कर देती है तब ऐसे उत्पादन फलन को दीर्घकालीन उत्पादन फलन अथवा पैमाने के प्रतिफल कहते हैं।
(vii). उत्पादन फलन उत्पादन का तकनीकी सारांश प्रस्तुत करता है।


10. सर्वाधिक संतुष्टि के लिए उपभोक्ता वस्तुओं के किस बंडल का चुनाव करता है अधिमान वक्र द्वारा दर्शायें। (Which bundle of goods consumer chooses for maximization of satisfaction? Show with the help of indifference curves.)

उत्तर सर्वाधिक संतुष्टि के लिए बंडलों का चुनाव एक उपभोक्ता सर्वाधिक संतष्टि के लिए उस बंडल का चनाव करता है जब उपभोक्ता संतुलन की अवस्था तक होता है जब अपनी सीमित आय की सहायता से वस्तुओं को उनकी दी गयी कीमतों पर खरीदकर अधिकतम संतुष्टि प्राप्त करने में सफल हो जाता है। उपभोक्ता की कीमत रेखा उसकी आय एवं उपभोग वस्तुओं की कीमतों से निर्धारित होता है। इस कीमत रेखा के साथ उपभोक्ता अधिकतम ऊँचे अधिमान वक्र तक पहुंचने का प्रयास करता है।
अधिमान वक्र विश्लेषण में उपभोक्ता के संतुलन की दो शर्त है 
(1). अधिमान वक्र कीमत रेखा का स्पर्श करे (Price Line should be tangent to Indifference Curve) अर्थात् मात्रात्मक रूप में वस्तु की वस्तु के लिए सीमांत प्रतिस्थापन दर तथा वस्तुएं की कीमतों के अनुपात के बराबर हो।Description:  औसत लागत.चित्र द्वारा देख सकते हैं Description: स्थायी संतुलन

चित्र में संतुलन बिन्दु पर कीमत रेखा ढाल = अधिमान वक्र का ढालDescription: स्थायी संतुलन

 

(2). स्थायी संतुलन के लिए सन्तुलन बिन्दु पर अधिमान वक्र मूल बिंदु की ओर उन्नतोदर होती है
चित्र द्वारा देख सकते हैं-

चित्र में बिंदु पर संतुलन की स्थिति स्थायी नहीं है क्योंकि बिंदु पर MRSXYबढ़ती हुआ है। बिंदु अंतिम संतुलन का बिंदु है जहाँ MRSXY घटती हुई है।

Part 2

11. वर्धमान पैमाने का प्रतिफल क्या हैसमझाइये।(What is increasing returns to goals ? Explain.)

उत्तर वर्धमान पैमाने का प्रतिफल लागत की दृष्टि से बढ़ते प्रतिफल के नियम को लागत ह्रास नियम भी कहा जाता है। बढ़ते प्रतिफल नियम के अंतर्गत परिवर्तनशील साधन की मात्रा को बढ़ाने से सीमान्त उत्पादकता में वृद्धि होती है जिसके कारण औसत लागत एवं सीमांत लागत घटना आरंभ कर देती है। बढ़ते तथा घटती लागतें वस्तुत: स्थिर कीमतों के अंतर्गत समान ही है इसलिए बढ़ते प्रतिफल नियम को घटती लागत नियम भी कहते हैं।
बढ़ते प्रतिफल नियम में जब औसत लागत (AP) बढ़ता है तब सीमांत उत्पादन (MP) उससे अधिक तेजी से बढ़ता है।
लागत के शब्दों में जब औसत लागत (AC) गिरता है तो सीमांत लागत (MC) उससे अधिक तेजी से गिरती है।Description:  उत्तर


12. एक फर्म के पूर्ति की लोच क्या हैउदाहरण द्वारा समझाइये । (What is firm’s elasticity of supply? Explain with example.)

उत्तर पूर्ति की लोच किसी वस्तु की कीमत में प्रतिशत परिवर्तन के कारण पूर्ति में होने वाले प्रतिशत परिवर्तन की आय है।
यदि किसी वस्तु की पूर्ति का उसकी कीमत बढ़ने-घटने से काफी विस्तार-संकुचन हो जाए तो उसे वस्तु की पूर्ति की कीमत लोच कहते हैं।
परन्तु कोई फर्म ऐसी वस्तु का उत्पादन करती है जिनकी पूर्ति पर उनकी कीमत का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता है अर्थात् चाहे उनकी कीमत बढ़ जाए या कम हो जाए उनकी पूर्ति नहीं बदलती है और उतनी ही रहती है या बहुत थोड़ी बदलती है। ताजे दूध का उदाहरण हम ले सकते है। जो ताजा दूध बाजार में आ चुका हैउसे तो बेचना ही पड़ेगा चाहे कीमत भले ही बहुत कम हा गई हो। दूध ऐसी वस्तु नहीं है कि गेहूँ की तरह गोदाम में इस विचार से रखा जाए कि कीमत बढ़न पर बेचा जाएगा। अत: नश्वरयानी जल्दी खराब होने वाली वस्तुओं जैसे दूधताजे फलसाब्जया की पूर्ति अथवा ऐसी वस्तुओं की पूर्ति जिन्हें बनाने के लिए बहुत पूँजी आदि अधिक समय चाहिए पूर्ति की लोच बेलोचदार होती है।
फर्म द्वारा निर्मित वस्तुओं की पूर्ति अपेक्षाकृत मूल्य सापेक्ष होती है। कारखाने में मालिक अपनी वस्तु की मांग बढ़ने पर अपने कारखाने में एक पारी की बजाय दो पारी कर देते हैं और यदि आवश्यकता हुई फर्म चार पारी (Shift) भी कर देते हैं। इस प्रकार पूर्ति को काफी बढ़ाया जा सकता है। मांग घट जाने पर भी पूर्ति की पारी कम करके अथवा मजदूरों को हटाकर घटाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त कारखाना उद्योगों में उत्पादन की मौसम. वर्षा आदि जैसे प्राकतिक तत्त्वों पर निर्भरता बहुत कम होती है। इस प्रकार फर्म की. पूर्ति लोच में निर्मित वस्तुओं की पूर्ति अधिक लोचदार या लोचदार होती है।


13. माँग को प्रभावित करने वाले तत्त्वों को बताएँ। (Explain factors affecting demand.)

उत्तर माँग को प्रभावित या निर्धारित करने वाले प्रमुख तत्त्व 

(i). वस्तु की उपयोगिता  उपयोगिता का मतलब होता है आवश्यकता पूर्ति की क्षमता। एक दी गई समयावधि में वस्तु की माँग का आकार इस बात पर निर्भर करता है कि मनुष्य की आवश्यकता पूर्ति की वस्तु में कितनी क्षमता है। अधिक उपयोगिता वाली वस्तु की माँग अधिक होगी तथा इसके विपरीत कम उपयोगिता वाली वस्तु की माँग कम होगी।

(ii) आय स्तर  आय स्तर का माँग पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। उपभोक्ता की आय जितनी अधिक होगी उसकी माँग उतनी ही अधिक होगी तथा उसकी आय का स्तर कम स्तर उसकी माँग को कम कर देगी।

(iii). धन का वितरण  समाज में धन के वितरण का भी माँग पर प्रभाव पड़ता है।

(iv). वस्तु की कीमत  वस्तु की कीमत माँग को मुख्य रूप से प्रभावित करती है। कम कीमत पर वस्तु की अधिक माँग तथा अधिक कीमत पर वस्तु की कम माँग होती है।

(v). संबंधित वस्तुओं की कीमतें  संबंधित वस्तुएँ दो प्रकार की होती है
(a) स्थानापन्न वस्तुएँऐसी वस्तुएँ जिनका एक-दूसरे के बदले प्रयोग किया जाता है जैसेचीनी-गुड़चाय-कॉफी आदि।
(b) पूरक वस्तुएँ  ऐसी वस्तुएँ जिनका उपयोग एक साथ किया जाता हैजैसे कार-पेट्रोलस्याही-कलम. डबल रोटी-मक्खन आदि।
स्थानापन्न वस्तुओं में एक वस्तु की कीमत का परिवर्तन दूसरी वस्तु की माँग को विपरीत दिशा में प्रभावित करता है तथा पूरक वस्तुओं में एक वस्तु के कीमत परिवर्तन के कारण दूसरी वस्तु की माँग समान दिशा में बदलती है।

(vi). रुचिफैशन आदि  वस्तु की माँग पर उपभोक्ता की रुचिउसकी आदतप्रचलित फैशन आदि का भी प्रभाव पड़ता है। किसी वस्तु विशेष का समाज में फैशन होने पर निश्चित रूप से उसकी माँग में वृद्धि होगी।

(vii). भविष्य में कीमत परिवर्तन की आशा  सरकारी नियंत्रणदेशी विपत्ति की आशंकायुद्ध संभावना आदि अनेक अप्रत्याशित एवं प्रत्याशित घटकों का भी वस्तु की माँग पर प्रभाव पड़ता है।
इसके अतिरिक्तजनसंख्या परिवर्तनव्यापार की दिशा में परिवर्तनजलवायुमौसम आदि का भी वस्तु की माँग पर प्रभाव पड़ता है।


14. माँग के नियम की व्याख्या करें। उसकी मान्यताओं को लिखें।(Explain the law of demand.What are its assumptions?)

उत्तर माँग का नियम किसी वस्त की कीमत तथा उसकी माँग के विपरीत संबंध को बताता है। यह नियम यह बताता है कि अन्य बातों के समान रहने पर वस्तु की कीमत तथा वस्तु की मात्रा में विपरीत संबंध पाया जाता है।
इस प्रकार अन्य बातों के समान रहने की दशा में किसी वस्तु की कीमत में वृद्धि होने पर उसकी माँग में कमी हो जाती है तथा इसके विपरीत कीमत में कमी होने पर वस्तु की माँग में वृद्धि हो जाती है।
मार्शल के अनुसार, “मूल्य में कमी होने से माँग की मात्रा बढ़ती है तथा मूल्य में वृद्धि होने से माँग की मात्रा कम होती है।
The amount demanded increase with a fall in price and diminishes with a rise in price.

माँग के नियम को हम उदाहरण द्वारा स्पष्ट कर सकते हैं-

गेहूँ की कीमत

वस्तु की माँग (प्रति किलो)

रुपये

किलो

रुपये

किलो

रुपये

किलो

तालिका से स्पष्ट है कि जैसे-जैसे बाजार में गेहूँ की कीमत में कमी आती जाती है वैसे गेहूँ की माँग में वृद्धि होती जाती है। जब गेहूँ की कीमत प्रति किलो रुपया है तो गेहूँ की मांग किलो हैपरन्तु जब गेहूँ की कीमत घटकर रुपये प्रति किलो हो जाती है तो गेहूँ की माँग बढ़कर किलो हो जाती है इस प्रकार गेहूँ की कीमत घटने पर गेहूँ की माँग में लगातार वृद्धि होती चली जाती है।

माँग के नियम की मान्यताएँ (Assumptions) – माँग के नियम की क्रियाशीलता कुछ मान्यताओं पर आधारित है 

(i). उपभोक्ता की आय में कोई परिवर्तन नहीं होनी चाहिए (Consumer’s income should remain constant)

(ii). उपभोक्ता की रुचिस्वभावपसंद आदि में कोई परिवर्तन नहीं होनी चाहिए (Consumer’s taste, nature etc. should remain constant)

(iii). संबंधित वस्तुओं की कीमतों में कोई परिवर्तन नहीं होनी चाहिए (Prices of related goods should remain constant)

(iv). किसी नवीन स्थानापन्न वस्तु का उपभोक्ता को ज्ञान नहीं होना चाहिए (Consumer’s remains unknown with a new substitute)

(v). भविष्य में वस्तु की कीमत में परिवर्तन की संभावना नहीं होनी चाहिए (No possibility of price change in future)


15. अत्यधिक माँग का अर्थ समझाएँ। क्या यह मुद्रा स्फीति उत्पन्न करती है ? (Explain the Meaning of Excess Demand. Does it create inflation?)

उत्तर यदि अर्थव्यवस्था में सामूहिक माँग एवं सामूहिक पूर्ति में संतुलन पूर्ण रोजगार स्तर के बा ॥ है तो यह अत्यधिक या अतिरेक माँग की स्थिति होती है। हम यँ कह सकते हैं कि अतिरेक माँग या अधिक माँग तब उत्पन्न होती है जब सामूहिक माँग पूर्ण रोजगार स्तर पर सामूहिक पूर्ति से अधिक होती है। इस प्रकार अतिरेक माँग या अत्यधिक माँग वह दशा है जिसमें सामूहिक माँग अर्थव्यवस्था में पूर्ण रोजगार के लिए आवश्यक सामूहिक पूर्ति से अधिक होती है।
Excess Demand refers to a situation in which aggregate demand becomes excess of aggregate supply corresponding to full employment in the economy.
अतिरेक माँग (Excess Demand)
AD>AS
अतिरेक माँग की इस स्थिति में सामूहिक माँग पर्याप्त माँग से अधिक होगी फलतः मांग में वृद्धि की रोजगार और उत्पादन के स्तर पर कोई प्रतिक्रिया नहीं होगी क्योंकि सभी साधनों को पहल ही पूर्ण रोजगार मिल चुका है। ऐसी स्थिति में जबकि सामूहिक माँग (AD) सामूहिक पूर्ति (AS) से अधिक हो जाती हैवस्तुओं एवं सेवाओं की कीमतें बढ़ने लगती है जिससे मुद्रा स्फीति (inflation) की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

सुधार के लिए मौद्रिक उपाय – अतिरेक माँग के सुधार के लिए निम्न मौद्रिक उपायों को किए जा सकते हैं-

(i). बैंक दर को बढ़ाया जाना चाहिए ताकि साख विस्तार को संकुचन किया जा सके और माँग में कमी हो सके।
(ii). केंद्रीय बैंक को खुले बाजार में प्रतिभूतियों को बेचनी चाहिए ताकि अर्थव्यवस्था में क्रयशक्ति कम हो।
(iii). नकद कोष अनुपात में वृद्धि की जानी चाहिए ताकि साख का कम विस्तार हो।
(iv). तरलता अनुपात को बढ़ाया जाना चाहिए ताकि साख के विस्तार को कम किया जा सके।

इस प्रकार अत्यधिक माँग को ठीक करने के लिए महँगी मौद्रिक नीति अपनायी जाती है। उसके अनेक उपायों द्वारा साख की उपलब्धता को महँगा एवं दुर्लभ बनाने के प्रयास किए जाते हैं। साख महँगी होने के कारण लोग उधार लेने एवं व्यय करने के लिए हतोत्साहित होते हैं फलस्वरूप सामूहिक माँग में कमी आती है तथा अतिरेक माँग को ठीक करने में सहायता मिलती है।


16. एकाधिकारी के लाभ अधिकतमीकरण की क्या शर्ते हैंचित्र द्वारा समझाइये। (What are the conditions of profit maximization of monopolist? Explain using diagram.)

उत्तर (1). एकाधिकारी वस्तु की अतिरिक्त इकाइयां उत्पादित करता चला जाता है जब तक कि सीमांत आय (MR), सीमांत लागत (MC) से अधिक होती है।

(2). एकाधिकारी के अधिकतम लाभ उस आय (MR) सीमांत लागत के बराबर होंगे।
एक चित्र द्वारा देखा जा सकता है 

रेखाचित्र मेंउत्पादन स्तर OM पर ही सीमांत आय और सीमांत लागत बराबर है क्योंकि OM के लम्बवत ऊपर बिन्दु पर ही सीमांत लागत (MC) और सीमांत आय (MR) एक दूसरे को काटते हैं। यदि एकाधिकारी OM मात्रा से कम उत्पादित करता है तो उसे लाभ कम होंगे। इसके विपरीत यदि वह OM से अधिक उत्पादन करता है तो सीमांत लागत (MC) सीमांत आय से अधिक होगी जिससे वह OM से अतिरिक्त इकाइयों पर हानि उठा रहा होगा। अतः उत्पादन मात्रा OM पर ही उसे अधिकतम लाभ प्राप्त होंगे और इस स्तर पर ही वह सन्तलन में होगा। चित्र से स्पष्ट है कि वस्तु की OM मात्रा बेचने से एकाधिकारी को MS अथवा OP कीमत प्राप्त होगी। उसके द्वारा अर्जित कुल लाभ HTSP के क्षेत्रफल के बराबर है।


17. प्रभावी माँग क्या हैइससे देश के आय/ उत्पादन का निर्धारण कैसे होता है ?
(What is effective demand ? How does it determine a country’s incomel output?)

उत्तर प्रभावी माँग
आय के भिन्न-भिन्न स्तरों पर मांग के भिन्न-भिन्न स्तर होते हैं परंतु माँग के ये सभी स्तर प्रभावपूर्ण नहीं होते हैं अर्थात् ये सभी स्तर प्रभावपूर्ण माँग को नहीं दर्शाती हैं। केवल वही माँग जो पूर्ति द्वारा संतुलित होतीप्रभावपूर्ण मांग कहलाती है। या हम कह सकते हैं कि कुल मांग और कुल पूर्ति का कटाव बिंदु प्रभावपूर्ण मांग का बिंदु कहलाता है।
लार्ड केन्स ने अपनी पुस्तक ‘General Theory of Employment, Interest and Money जो 1936 में प्रकाशित हुईइस पुस्तक में लार्ड केन्स के रोजगार सिद्धांत के अनुसार पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में अल्पकाल में कुल उत्पादन अथवा राष्ट्रीय आय रोजगार के स्तर पर निर्भर करता है क्योंकि अल्पकाल में उत्पादन के अन्य साधन जैसे-पूँजीतकनीक आदि स्थिर रहते हैं। रोजगार का स्तर प्रभावपूर्ण मांग पर निर्भर करता है। प्रभावपूर्ण माँग सामुहिक माँग के उस स्तर को कहते हैं जिस पर वह सामूहिक पूर्ति के बराबर होती है।
केन्स के अनुसार एक अर्थव्यवस्था में आय/ रोजगार एवं उत्पादन का निधारण उस बिदु पर होता है जहाँ सामूहिक माँग और सामूहिक पूर्ति आपस में बराबर होते हैं। । अर्थात् जिस बिंदु पर सामूहिक माँग (AD) तथा सामूहिक पूर्ति (AS) आपस में बराबर होते हैं उसे प्रभावपूर्ण माँग का बिंदु कहा जाता है।
इसी कारण प्रभावपूर्ण माँग को केन्स के रोजगार सिद्धांत का प्रारंभिक बिंदु कहा जाता है।
चित्र द्वारा देखा जा सकता है Description: स्थायी संतुलन


18. लचीले विनिमय दर व्यवस्था में विनिमय दर का निर्धारण कैसे होता है ?
(How is exchange rate determined in the index flexible exchange rate system ?)

उत्तर लचीले विनिमय दर प्रणाली में विनिमय दर विदेशी मुद्रा बाजारों में विदेशी मुद्रा की मांग एवं पूर्ति द्वारा निर्धारित होती है तथा विनिमय कर माँग एवं पूर्ति के परिवर्तन के साथ बदलती रहती है।
अतः R=f (D, S)
R – विनिमय दर, D- अंतर्राष्ट्रीय बाजार में विभिन्न मुद्रा की माँग, S = अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में विभिन्न मुद्राओं की पूर्ति।
जिस विनिमय दर पर विदेशी मुद्रा की माँग उसकी पूर्ति के बराबर हो जाएउसे विनिमय की समता दर कहते हैं।

लचीले विनियम दर का निर्धारण – जिस प्रकार वस्तु की कीमत बाजार में मांग व पूर्ति की शक्तियों द्वारा निर्धारित होती है उसी प्रकार विनिमय दर भी विदेशी विनिमय बाजार में माँग व पूर्ति के द्वारा निर्धारित होती है। सभी देशों द्वारा वस्तुओंसेवाओं एवं पूंजी के लेन-देन किये जाते हैं। इन लेन-देनों के बदले विदेशी विनिमय से भुगतान एवं प्राप्तियाँ होती है। जब विदेशी विनिमय से भुगतान किया जाता है तो उस देश के द्वारा विदेशी विनिमय की मांग की जाती है। इसी तरह जब विदेशी विनिमय की प्राप्तियाँ मिलती है तो उस देश में विदेशी विनिमय की पूर्ति होती है।
इस तरह विदेशी विनिमय के माँग एवं पूर्ति घटक विनिमय दर का निर्धारण करते हैं। विदेशी विनिमय की माँग मुख्य रूप से वस्तुओं एवं सेवाओं के आयात तथा विदेशों में विनियोग करने व ऋण देने के कारण उत्पन्न होती है।
विदेशी विनिमय की पूर्ति विनिमय दर और विदेशी विनिमय की पूर्ति के बीच फलनात्मक सम्बन्ध को दर्शाती है।
लचीले विनिमय दर का निर्धारण वहाँ होता है जहां विदेशी विनिमय की कुल माँग वक्र DD तथा कुल पूर्ति वक्र SS एक दूसरे को बिन्दु पर काटते हैं। नीचे के चित्र में OR विनिमय दर संतुलित विनिमय दर निर्धारित होती है जिस पर विदेशी मुद्रा की कुल माँग (OQ) इसका कुल पूर्ति (OQ) के बराबर होती है।Description: स्थायी संतुलन


19. चार क्षेत्रीय अर्थव्यवस्था में चक्रीय प्रवाह को समझाएँ। (Explain the circular flow in four sector economy.)

उत्तर चार क्षेत्रीय प्रवाह मॉडल खुली अर्थव्यवस्था को प्रदर्शित करता है। चार क्षेत्रीय चक्रीय प्रवाह मॉडल में विदेशी क्षेत्र या शेष विश्व क्षेत्र को शामिल किया जाता है। वर्तमान में अर्थव्यवस्था का स्वरूप खुली अर्थव्यवस्था का है। जिसमें वस्तुओं का आयात-निर्यात होता है। जब तक अर्थव्यवस्था शेष विश्व से आयात की गई वस्तओं का भगतान करती है तो इसमें देश के बाहर शेष विश्व की ओर मुद्रा का प्रवाह होता है। दूसरी ओर जब एक देश शेष विश्व को निर्यात करता है तो दूसरे देश उसे भुगतान करते हैं। इस प्रकार शेष विश्व से इस देश की ओर मुद्रा का प्रवाह होता है।

खुली अर्थव्यवस्था में आय प्रवाह के पाँच प्रमुख स्तंभ होते हैं
(i) परिवार क्षेत्र
(ii) व्यावसायिक क्षेत्र
(iii) सरकारी क्षेत्र
(iv) शेष विश्व क्षेत्र एवं
(v) पूँजी बाजार।

संतुलन की शर्त  चार क्षेत्रीय अर्थव्यवस्था के चक्रीय प्रवाह में संतुलन की शर्त है 
y = C+I+G+ (X – M)
y= आय, C = उपभोक्ता व्यय, I = निवेश व्यय, G = सरकारी व्यय, (X-M) = शुद्ध निर्यात, X = निर्यात, M = आयात।

विशेषताएँ-
(i) परिवार क्षेत्र  यह क्षेत्र उत्पादन के साधनों का स्वामी होता है। यह क्षेत्र अपनी सेवा के बदले मजदूरीलगानब्याजलाभ के रूप में आय प्राप्त करते हैं। यह क्षेत्र अपने आय का कुछ भाग बचा लेता है जो पूँजी बाजार में चला जाता है।

(ii) उत्पादक क्षेत्र  उत्पादक क्षेत्र वस्तुओं एवं सेवाओं का उत्पादन करता है जिसका उपयोग परिवार तथा सरकार द्वारा किया जाता है।

(iii) सरकारी क्षेत्रसरकार परिवार एवं उत्पादक क्षेत्र दोनों से कर की वसूली करता है।

(iv) शेष विश्वशेष विश्व निर्यात के लिए भुगतान प्राप्त करता है। यह क्षेत्र सरकारी खातों पर भुगतान प्राप्त करता है।

(v) पूँजी बाजार  पूँजी बाजार तीनों क्षेत्र परिवारफर्मों तथा सरकार की बचतें एकत्रित करता है। यह क्षेत्र परिवारफर्मे तथा सरकार को पूँजी उधार देकर निवेश करता है। पूँजी बाजार में अन्तर्प्रवाह एवं बाह्य प्रवाह बराबर होते हैं।


20. राष्ट्रीय आय की विभिन्न धारणाओं को स्पष्ट कीजिए। (Explain the various concepts of National Income.)

उत्तर राष्ट्रीय आय की अवधारणाओं में तीन बातें मुख्य रूप से हैं 

(i) राष्ट्रीय आय की धारणाएँ वस्तुओं के निरन्तर चलने वाला एक प्रवाह है अर्थात् राष्ट्रीय आय से आशय किसी एक समय पर उपलब्ध वस्तुओं के स्टॉक से नहीं बल्कि किसी समयावधि में उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं के प्रवाह में है।

(ii) राष्ट्रीय आय की धारणाएँ में सभी प्रकार की वस्तुओं और सेवाओं की बाजार कीमत शामिल की जाती है और एक वस्तु की कीमतें एक ही बार शामिल की जाती हैइसमें अंतिम वस्तुओं और सेवाओं का मूल्य ही गिना जाता है जिससे दोहरी गणना से बचा जा सके।

(iii) राष्ट्रीय आय की धारणाएँ के साथ एक निश्चित समय की अवधि जुड़ी रहती है। यह अवधि एक वर्ष की होती है।

(iv) राष्ट्रीय आय की गणना के संबंध में मूलतः दो धारणाएँ जैसेराष्ट्रीय उत्पाद तथा घरेलू उत्पाद को आधारस्वरूप लिया जाता है। शेष सभी धारणाएँ इन धारणाएँ पर आधारित इनके स्वरूप है।

Part 3

21. चक्रीय आय प्रवाह मॉडल का महत्त्व बताएँ। (Explain importance of circular income flows.)

उत्तर आर्थिक विश्लेषण के दृष्टिकोण से चक्रीय आय प्रवाहों का महत्त्व निम्न रूप से देखा जा सकता है-

(i) राष्ट्रीय आय का अनुमान (Estimation of National income) – देश की राष्ट्रीय आय की गणना करने में मुद्रा प्रवाह का अध्ययन बहुत उपयोगी है।

(ii) अर्थव्यवस्था की कार्य-प्रणाली का ज्ञान (Knowledge of working of Economy) इसके द्वारा हमें यह मालूम हो जाता है कि अर्थव्यवस्था सुचारु रूप से कार्य कर रही है अथवा नहीं।

(iii) मौद्रिक नीति का महत्त्व (Importance of Monetary policy) – चक्रीय आय प्रवाह अर्थव्यवस्था में बचत तथा विनियोग की समानता लाने के दृष्टिकोण से मौद्रिक नीति के महत्त्व को स्पष्ट करती है।

(iv) राजकोषीय नीति का महत्त्व (Importance of fiscal policy)—चक्रीय आय प्रवाहों के अध्ययन के द्वारा अर्थव्यवस्था में संतुलन बनाये रखने की दृष्टि से राजकोषीय नीति का महत्त्व स्पष्ट हो जाता है।

(v) असंतुलन की समस्याओं का अध्ययन (Study of problem of imbalance) – चक्रीय आय प्रवाहों के द्वारा असंतुलन के कारणों तथा उनको दूर करने के उपायों का अध्ययन किया जा सकता है।

(vi) आय का रोजगार सिद्धांत का प्रतिपादन (Theory of income and Employment propounded)—मुद्रा प्रवाह तथा इसे प्रभावित करने वाले तत्वों को ध्यान में रखकर प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जे० एम० केन्स ने आय व रोजगार का सिद्धान्त का प्रतिपादन किया।

(vii) अन्तर्राष्ट्रीय व्यापारिक नीतियों का आधार (Basis for international commercial policies) – चक्रीय आय प्रवाहों के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि राष्ट्रीय आय में से आयात रिसाव है क्योंकि आयातों का भुगतान अन्य देशों की आय है। आयातों को कम करने की दृष्टि
से सरकार निर्यात को प्रोत्साहित करने की नीति को अपनाती है।

(vii) उत्पादनआय तथा व्यय की तिहरी समानता (Triple Identity of production, income and expenditure) – आय के चक्रीय प्रवाह से स्पष्ट हो जाता है कि उत्पादनआय तथा व्यय उत्पादन प्रक्रिया के फलस्वरूप उत्पन्न वस्तुओं तथा सेवाओं के मूल्य को प्रकट करने के लिए विभिन्न रूप है। इस प्रकार चक्रीय प्रवाह से ज्ञात होता है कि
उत्पादन = आय – व्यय
यह समानता राष्ट्रीय आय के मापन की रीतियों का आधार है।


22. पूर्णतया लोचदार माँग और पूर्णतया बेलोचदार माँग में अन्तर कीजिए।
(Differentiate between perfectly elastic demand and perfectly inelastic demand.)

उत्तर जब किसी वस्तु की कीमत में परिवर्तन नहीं होने पर भी अथवा बहुत सूक्ष्म परिवर्तन होने पर माँग में बहुत अधिक परिवर्तन हो जाता है तब उस वस्तु की माँग पूर्णतया लोचदार कही जाती है। पूर्ण लोचदार माँग को अनंत लोचदार मांग भी कहा जाता है । इस स्थिति में एक दी नई कीमत पर वस्त की माँग असीम या अनंत होती है तथा कीमत में नाममात्र की वृद्धि होने पर शन्य हो जाती है। माँग वक्र पूर्ण लोचदार होने पर माँग वक्र x-अक्ष के समानांतर होता है जिसे हम नीचे चित्र द्वारा देख सकते हैं।Description:  औसत.

माँग की मात्रा जब किसी वस्तु की कीमत में परिवर्तन होने पर भी उसका माँग में कोई परिवर्तन नहीं होता है तो इसे पूर्णतया बेलोचदार माँग कहते हैं। इस स्थिति में माँग की लोच शून्य होती है जिसके फलस्वरूप माँग वक्र Y-अक्ष के समानांतर होती है। इसे हम निम्न चित्र द्वारा देख सकते हैंDescription:  निम्न को परिभाषित करें


23. न्यून माँग से क्या समझते हैंइसके आर्थिक परिणामों का वर्णन करें।
(What do you mean by Deficient demand ? Describe their economical effects.)

उत्तर न्यून माँग वह दशा है जिसमें अर्थव्यवस्था में सामूहिक माँग पूर्ण रोजगार के लिए आवश्यक सामूहिक पूर्ति से कम होती है। अर्थव्यवस्था में पूर्ण रोजगार स्तर से पहले ही संतुलन प्राप्त हो जाने के कारण ही न्यून माँग की दशा उत्पन्न हो जाती है। यह स्थिति उत्पन्न होने के कारण यह है कि पूर्ण रोजगार स्तर तक पहुँचने के लिए जितनी सामूहिक माँग की आवश्यकता थीवर्तमान सामूहिक माँग उससे कम रह गई। सामूहिक माँग की इस कमी के कारण ही हम पूर्ण रोजगार स्तर तक नहीं पहुंच पाये। अतः जब वर्तमान सामूहिक माँग पूर्ण रोजगार स्तर के लिए आवश्यक सामूहिक माँग से कम हो जाती है तो इसे न्यून माँग कहते हैं।

न्यून माँग के आर्थिक परिणाम
न्यून माँग के आर्थिक परिणाम निम्न तीन हैं 
(A) उत्पादन पर प्रभाव(B) रोजगार पर प्रभाव(C) कीमतों पर प्रभाव।

(A) उत्पादन पर प्रभाव (Effects on Production) – इसके अंतर्गत निम्न आर्थिक परिणाम देखने को मिलते हैं।
(i). न्यून माँग के कारण उत्पादक वस्तुओं एवं सेवाओं का उत्पादन घटाने के लिए बाध्य होंगे।
(ii). न्यून माँग के कारण अपनी वर्तमान उत्पादन क्षमता का पूर्ण उपभोग नहीं कर पाएंगे।
(iii). न्यून माँग के कारण देश के उत्पत्ति के संसाधनों का पूर्ण उपयोग नहीं हो पाएगा।
(iv). न्यून माँग के कारण पहले से कार्य कर रही कुछ फर्मे अपना कार्य बन्द कर देगी।
(v). न्यूयून माँग के कारण उत्पादन की लागत में वृद्धि होगी।

(B) रोजगार पर प्रभाव (Effects on Employment) – माँग की कमी के कारण उत्पादकों को वस्तुओं एवं सेवाओं के अपने उत्पादन में कमी करनी पड़ेगी। इसका सामान्य प्रभाव यह होगा कि देश में रोजगार के स्तर में कमी आ जाएगी।

(C) कीमतों पर प्रभाव (Effects on Prices) – न्यून माँग के कारण देश में कीमत स्तर में कमी आ जाएगी जिससे उत्पादकों के लाभ के मार्जिन में कमी आ जाएगी तथा उपभोक्ताओं को कम कीमत पर वस्तुएँ एवं सेवाएँ प्राप्त हो सकेगी।


24. क्या सकल घरेलू उत्पाद किसी देश के आर्थिक कल्याण का निर्देशांक है अपने उत्तर को स्पष्ट करें। (Is gross domestic product an indication of a country’s economy welfare ? Clarify your answer.)

उत्तर सकल घरेलू उत्पाद आर्थिक कल्याण का निर्देशांक
यदि सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का आकलन वास्तविक अर्थों में नहीं किया जाता तो इसे देश में आर्थिक कल्याण की माप का सूचक नहीं माना जा सकता है। देश
में वास्तविक राष्ट्रीय आय की वृद्धि प्रति व्यक्ति आय की वृद्धि उत्पन्न करती है। विपरीत परिस्थितियों में कहा जा सकता है कि जब तक देश की वास्तविक राष्ट्रीय आय में वृद्धि नहीं होतीतब तक प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि दर्ज नहीं की जा सकती है।

सकल घरेलू उत्पाद (GDP) को देश में आर्थिक कल्याण का निर्देशांक प्रयोग करने के लिए कुछ व्यावहारिक सीमाएँ हैं 
1. सकल घरेलू उत्पाद (GDP) की वृद्धि देश में बेहतर जीवन स्तर को अनिवार्य रूप से प्रदर्शित करने में असमर्थ है।

2. सकल घरेलू उत्पाद (GDP) देश में आय के समान वितरण पक्ष की अवहेलना करता है। आर्थिक कल्याण में वृद्धि तब तक सुनिश्चित नहीं की जा सकती जब तक GDP की वृद्धि को समाज में समान वितरण न सुनिश्चित किया जाए।

3. अर्थव्यवस्था की अनेक क्रियाओं का आकलन मौद्रिक अर्थों में नहीं किया जाता जिससे GDP का आकलन वास्तविक आकार से कम रह जाता है। अत: GDP (सकल घरेलू उत्पाद) को आर्थिक कल्याण का उचित निर्देशांक नहीं माना जा सकता है।

4. सकल घरेलू उत्पाद (GDP) बाह्य घटकों की उपेक्षा करता है जो किसी क्रिया पर धनात्मक या ऋणात्मक प्रभाव डालता है। इन बाह्य कारणों का प्रभाव GDP के परिक्षेत्र से बाहर होता है और इसलिए समाज की दृष्टि से GDP को आर्थिक कल्याण का सही एवं विश्वसनीय निर्देशांक नहीं माना जा सकता।
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि देश के आर्थिक कल्याण का GDP या GNP आर्थिक कल्याण का माप निर्देशांक सही नहीं है।


25. भारत में मुद्रा की पूर्ति की वैकल्पिक परिभाषा क्या हैइनमें से कौन सबसे – व्यापक मुद्रा है ?
(What are the alternative definitions of supply of money in India ? Which of these is broad money?)

उत्तर मुद्रा की पूर्ति की भारत में वैकल्पिक परिभाषा
किसी विशेष समय में मुद्रा की पूर्ति का तात्पर्य समाज में प्रचलित मुद्रा की कुल मात्रा से होता है। मुद्रा की परिभाषा से स्पष्ट है कि सिक्के एवं कागजी नोट को ही हम मुद्रा नहीं कहते बल्कि इसके अन्तर्गत उन सभी पदार्थों को भी रखा जाता है जो लेन-देन के भुगतान के रूप में स्वीकार किये जाते हैं। अतः वर्तमान समय में मुद्रा की पूर्ति के अन्तर्गत निम्न तीन प्रकार की मुद्राओं का समावेश रहता है 

(i) सिक्के (Coins)
(ii) पत्रमुद्रा (Paper Money)
(iii) बैंक जमा (Bank Deposit)
केवल चालू जमा जिसके आधार पर चेक जारी किये जाते हैं। किन्तु मुद्रा की पूर्ति के अन्तर्गत किसी विशेष समय में केवल प्रचलन में मुद्रा की ही गणना की जाती है।
सकल मांग जमाओं में बैंकों के बीच होने वाले दावे को शामिल किया जाता हैजबकि शुद्ध माँग जमाओं में दावे शामिल नहीं किये जाते हैं। बैंक के बीच होने वाले दावे लोगों की मांग जमाओं में शामिल नहीं होते। अतः शुद्ध मांग जमाओं को मुद्रा पूर्ति का व्यापक भाग माना जाता है।


26. उदासीन वक्र की सहायता से उपभोक्ता का संतुलन स्पष्ट कीजिए। (Explain consumer’s equilibrium with the help of indifference curve.)

उत्तर एक उपभोक्ता संतुलन की अवस्था में तब होता है जब अपनी सीमित आय की सहायता से वस्तुओं को उनकी दी गई कीमतों पर खरीदकर अधिकतम संतुष्टि प्राप्त करने में सफल हो जाता है। उपभोक्ता को कीमत रेखा उसकी आय एवं उपभोग वस्तुओं की कीमतों से निर्धारित होती है। इस कीमत रेखा के साथ उपभोक्ता ऊँचे से नीचे उदासीनता वक्र तक पहुँचने का प्रयास करता है।

उदासीनता वक्र विश्लेषण में उपभोक्ता के संतुलन की दो शर्ते हैं 

(i). उदासीनता वक्र कीमत रेखा को स्पर्श करें (Price Line should be tangent to indifference Curve) अर्थात् मात्रात्मक रूप में वस्तु की वस्तु के लिए सीमांत प्रतिस्थापन दर तथा वस्तुओं की कीमतों के अनुपात के बराबर होनी चाहिए।Description: कुल परिवर्तनशील लागत

MRSXY = PX/Y चित्र द्वारा देखा जा सकता है।

चित्र में संतुलन बिंदु पर कीमत रेखा का ढाल = उदासीनता वक्र का ढाल अर्थात्                   MRSxy =  PX/X

(ii). स्थायी संतुलन के लिए संतुलन बिंदु पर उदासीनता वक्र मूल बिन्दु की ओर उन्नतोदर होनी चाहिए अर्थात् संतुलन बिन्दु पर MRS घटती हुई होनी चाहिए। (For stable equilibrium indifference curve should be convex to the origin at the point of equilibrium that MRS should be declining at the point of equilibrium) अर्थात् संतुलन बिन्दु पर MRSXY घटती हुई होनी चाहिए। चित्र में देख सकते हैं।

चित्र में बिन्दु पर यद्यपि संतुलन की पहली शर्त पूरी हो रही है किन्तु पर संतुलन की स्थिति स्थायी नहीं है क्योंकि बिन्दु पर MRSXY, बढ़ता हुआ है। बिन्दु अंतिम संतुलन का बिन्दु है जहाँ MRSXY, घटती हुई है।


27. केंद्रीय बैंक के मौद्रिक उपाय से क्या समझते हैंन्यून माँग को ठीक करने के लिए मौद्रिक उपाय का वर्णन करें। (What do you mean by monetary measures of Central Bank ? Explain the monetary measures to correcting deficient demand.)

उत्तर केंद्रीय बैंक के मौद्रिक नीति देश के केंद्रीय बैंक की मौद्रिक नीति होती है जिसका उद्देश्य मुद्रा और साख की पूर्ति को नियंत्रित करना होता है। भारत का केंद्रीय बैंक भारतीय रिजर्व बैंक है।
केंद्रीय बैंक अर्थव्यवस्था में आर्थिक स्थिरता प्राप्त करने के लिए मौद्रिक नीति द्वारा तीन घटकों को नियंत्रित करता है।
(i) मुद्रा की पूर्ति, (ii) ब्याज दर, (iii) मुद्रा की उपलब्धता
डी० सी० ऑस्टन के अनुसार, “मौद्रिक नीति का संबंध ब्याज की दर तथा साख की उपलब्धि को नियंत्रित करके कुल माँग के स्तर तथा संरचना को प्रभावित करने से है।
“Monetary Policy involves the influence on the level and composition of aggregate demand by the manipulation of interest rate and the availability of credit.” D.C. Auston.

न्यन माँग को ठीक करने के मौद्रिक उपाय  न्यून माँग को ठीक करने के मौद्रिक उपाय को दो वर्गों में देखा जा सकता है 
(A). मात्रात्मक उपाय (Quantitative measures)
(B). गुणात्मक उपाय (Qualitative measures)

(A) मात्रात्मक उपाय के अंतर्गत देश की साख की कुल मात्रा को नियंत्रित किया जाता है।
इसके अंतर्गत निम्न विधियों द्वारा मात्रात्मक साख नियंत्रण करता है 

(i). बैंक दर को कम कर दिया जाता है ताकि अधिक साख विस्तार हो सके तथा माँग में वृद्धि हो सके।
(ii). केंद्रीय बैंक खुले बाजार में प्रतिभूतियाँ खरीदता है जिससे अर्थव्यवस्था में क्रय शक्ति बढ़ती है।
(iii). नकद कोष अनुपात को कम कर दिया जाता है जिससे साख का अधिक विस्तार होता है। प्रत्येक व्यापारिक बैंक को कानूनी रूप से अपनी जमा राशियों का एक निश्चित अनुपात देश के केंद्रीय बैंक के पास रखना पड़ता हैजिसे नकद कोष अनुपात कहा जाता है।
(iv). तरलता अनुपात को कम कर दिया जाता है। फलतः साख का अधिक विस्तार हो सकता है। प्रत्येक बैंक को अपनी परिसम्पतियों का एक निश्चित अनुपात नकदी के रूप में रखना वैधानिक रूप से आवश्यक है। इसे हम तरलता अनुपात कहते हैं।

(B). गुणात्मक उपाय  – गुणात्मक उपाय वे उपाय हैं जिनका उद्देश्य अर्थव्यवस्था के कुछ विशेष कार्यों के लिए दी जाने वाली साख के प्रवाह को नियंत्रित करना है। इसके अंतर्गत निम्न उपाय अपनाए जाते हैं-
(i). ऋणों की सीमांत आवश्यकता को कम कर दिया जाता है ताकि अधिक ऋण अधिक मात्रा में मिल सके। न्यून माँग के नियंत्रण के लिए साख के मार्जिन को कम कर दिया जाता है।
(ii). साख की राशनिंग को समाप्त कर दिया जाता है। न्यून माँग को ठीक करने की स्थिति में साख की राशनिंग समाप्त कर दिया जाता है।
(iii). केंद्रीय बैंक द्वारा व्यापारिक बैंकों को साख विस्तार करने का परामर्श दिया जाता है जिससे भी साख का विस्तार होता है। इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि न्यून माँग की स्थिति में केंद्रीय बैंक द्वारा सस्ती मौद्रिक नीति अपनायी जाती है।


28. भारतीय व्यापारिक बैंक के प्रमुख कार्यों का वर्णन कीजिए। (Explain the main functions of Indian commercial bank.)

उत्तर व्यावसायिक बैंक के प्रमुख कार्य 
(Main functions of commercial Bank) व्यावसायिक बैंक मुख्य रूप से तीन प्रकार के कार्य करते हैं 
(1). प्राथमिक कार्य,   (2). एजेन्सी कार्य,   (3). सामान्य उपयोगी सेवाएं ।

(1) प्राथमिक कार्य के अंतर्गत व्यावसायिक बैंक निम्न कार्य करता है-

(i) जमा स्वीकार करना (Receiving Deposits):— व्यावसायिक बैंक निम्न प्रकार से लोगों का जमा स्वीकार करता है-

(a) बचत जमाखाता  यह खाता परिवारों के लिए लाभदायक है जिनको एक बार रुपया जमा करवाने के बाद तुरंत जरूरत नहीं पड़ती है।
(b) चालू खाता जमा-यह खाता व्यापारी लोगों के लिए उपयोगी होता हैजिन्हें कई बार रुपया निकलवाने की जरूरत पड़ती है। इस खाते में कोई ब्याज नहीं
दिया जाता है।
(c) मियादी खाता जमा  इसमें दीर्घकाल के लिए जमा स्वीकार की जाती है। इस खाते में ब्याज की दर अधिक होती है।

(ii) उधार देना (Advancing of loan) – व्यावसायिक बैंक का दूसरा मख्य कार्य है लोगों को ऋण देना। बैंक दूसरे लोगों से जो जमा स्वीकार करता है उसका एक निश्चित भाग सुरक्षा कोष में रखकर उत्पादक कार्यों के लिए उधार दे देता है और उसपर ब्याज कमाता है।

(iii) साख का निर्माण (Credit of Creation) – व्यावसायिक बैंक साख का निर्माण करता है।

(2) एजेन्सी कार्य (Agency Functions):— बैंक अपने ग्राहकों के एजेन्ट के रूप में भी काम करता हैजिसके लिए बैंक कुछ कमीशन भी लेता है। बैंक द्वारा प्रदत एजेन्सी सेवाएँ निम्न हैं 

(i) नकद कोषों का हस्तांतरण — बैंक ड्राफ्टउधार खाते चिट्ठी तथा अन्य साख-पत्रों द्वारा बैंक एक स्थान से दूसरे स्थान को रकम का स्थानांतरण करता है।

(ii) बैंक अपने ग्राहकों के लिए कंपनियों के शेयर बेचता और खरीदता है।
(iii) बैंक मृतक की वसीयतों और प्रबंधकर्ता का दायित्व निभाता है।

(3). सामान्य उपयोगी सेवाएँ (General Utility Services):- व्यावसायिक बैंक द्वारा। उपलब्ध अन्य उपयोगी सेवाएँ निम्न हैं 
(i). बैंकविदेशी मुद्रा का क्रय-विक्रय करता है।
(ii). कीमती वस्तुओं के लिए लॉकर्स उपलब्ध कराता है।
(iii). पर्यटक चेक और उपहार चेक जारी करता है।
(iv). बैंक अपने ग्राहकों के आर्थिक हवाले देता है।

(4). अन्य कार्य 
(i) ओवर ड्राफ्ट (Overdraft)
(ii) विनिमय बिलों पर कटौती (Discounting Bills of Exchange)
(iii) कोषों का निवेश करना (Investment of Funds) -बैंक अपने अतिरिक्त धन राशियों को तीन प्रकार की प्रतिभूतियों में निवेश करता है
(a) सरकारी प्रतिभूतियाँ, (b) अन्य अनुमोदित प्रतिभूतियाँ एवं (c) अन्य प्रतिभूतियाँ
इस प्रकार व्यावसायिक बैंक के उपर्युक्त कई कार्य हैं।


29. केंद्रीय बैंक के मुख्य कार्यों की व्याख्या करें। (Explain the main function of Central Bank.)

उत्तर केंद्रीय बैंक के कार्य निम्नलिखित हैं 
(i) कागजी नोट जारी करने का कार्य (Function of Note issue) – सभी देशों में केंद्रीय बैंक को कागजी नोट जारी करने का एकाधिकार (Monopoly) होता है। निम्नलिखित कारणों से केंद्रीय बैंक को नोट जारी करने का अधिकार दिया जाता है-

(a).  केंद्रीय बैंक द्वारा जारी किये गये नोटों में जनता का स्थायी विश्वास होता है क्योंकि केंद्रीय बैंक बन्द नहीं हो सकता।
(b).  केंद्रीय बैंक को नोट-निर्गमन का अधिकार देने से वह मुद्रा तथा साख की मात्रा को सरलतापूर्वक नियमन एवं नियंत्रण कर सकता है।
(c).  केन्द्रीय बैंक द्वारा जारी किये गए नोटों में अधिक एकरूपता (Uniformity) रहती हैजिससे जाली नोटों का बनना कम सम्भव है।
इस प्रकार उपर्युक्त कारणों से केंद्रीय बैंक को नोट जारी करने का अधिकार दिया जाता है।

(ii) बैंकों के बैंक का कार्य (Banker’s Bank) – केंद्रीय बैंक अन्य सभी बैंकों के बैंक का कार्य करता है। जिस प्रकार बैंक जनता को विभिन्न सुविधाएँ देते हैंउसी प्रकार केंद्रीय बैंक भी बैंकों को विभिन्न सुविधाएँ प्रदान करता है।

(a). केंद्रीय बैंक बैंकों की रकम को अपने पास जमा रखता है।
(b). केंद्रीय बैंक बैंकों को उनके विनिमय बिलों को पुनः बट्टा करा कर (Rediscounting) तथा सरकारी एवं अन्य प्रतिभूतियों के आधार पर ऋण भी देते हैं।
(c). केंद्रीय बैंक बैंकों को कुछ अन्य सुविधायें भी प्रदान करते हैं मुद्रा को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने की सुविधा (Remittance facilities), समाशोधन-गृह की सुविधा इत्यादि।
इस प्रकार केंद्रीय बैंक बैंकों को उपर्युक्त सुविधायें प्रदान कर बैंकों के बैंक के रूप में कार्य करते हैं।

(iii) देश के धातु  कोष एवं विदेशी विनिमय-कोष को सुरिक्षत रखना (Safe custody of Internal reserve and Foreign Exchange Reserve) केंद्रीय बैंक देश के धातु-कोष जिसमें सोने-चाँदी का भंडार सम्मिलित है तथा विदेशी विनिमय कोष (Foreign Exchange Reserve) को सुरक्षित रखता है।

(iv) सरकार की मौद्रिक  नीति को सफल बनाना (To make successful the Monetary policy of the Government)— यों तो मौद्रिक-नीति (Monetry policy) का संचालन केंद्रीय बैंक ही करती हैलेकिन उसका निर्धारण मुख्यतः सरकार के हाथों में रहता है।


30. माँग की लोच से आप क्या समझते हैंमाँग की लोच मापने के प्रतिशत और रेखा गणित विधि को समझाएँ। (What do you mean Price elasticity of demand ? Explain measurement of percentage method and geometrical method.)

उत्तर कीमत में परिवर्तन के फलस्वरूप माँग में होने वाले परिवर्तन के माप को माँग की लोच कहते हैं। प्रो० मार्शल के अनुसारमाँग की कीमत लोचकीमत में होने वाले प्रतिशत परिवर्तन का अनुपात है।

इसे हम समीकरण के रूप में इस प्रकार देख सकते हैं-Description: उत्तर

 

हम कह सकते हैं कि कीमत में परिवर्तन के प्रतिमाँग की संवेदनशीलता का माप” माँग की लोच कहलाती है।
किसी वस्तु के मूल्य में परिवर्तन के फलस्वरूप उसकी माँग में जो परिवर्तन होता है उसे माँग की लोच कहते हैं।

(i). प्रतिशत विधि (Percentage method) – माँग की लोच मापने की प्रतिशत विधि को आनुपातिक विधि या फ्लक्स विधि भी कहा जाता है। क्योंकि इसे फ्लक्स ने प्रतिपादित किया था। इस विधि के अनुसार कीमत में प्रतिशत परिवर्तन और माँग में प्रतिशत परिवर्तन के अनुपात से हम माँग की लोच निम्न सूत्र की सहायता से माप सकते हैं।Description: उत्तर

 

 

जिसमें ∆P (डेल्टा P) = कीमत में परिवर्तन
P = आरंभिक कीमत, ∆q = माँग में परिवर्तन, q = आरंभिक माँग
सूत्र से जब उत्तर है तो माँग की लोच इकाई के बराबर है अर्थात् माँग लोचदार है। जब उत्तर से अधिक है तो माँग का लोच अधिक है। से कम है तो माँग कम लोचदार है।

(ii). रेखागणित विधि/ज्यामितिय विधि/बिन्दु प्रणाली (Geometrical method) – माँग की कीमत लोच मापने की एक अन्य विधि है जिसे रेखागणितीय विधि या बिंदु विधि (point method) है जिसका प्रयोग सीधी रेखा वाले माँग वक्र” के विभिन्न बिन्दु पर लोच मापने के लिए किया जाता है।

(i) सीधी रेखा वाले माँग वक्र को अक्ष और अक्ष तक बढ़ाया गया है जिसे हम चित्र में देख सकते हैं Description: कुल परिवर्तनशील लागत

(ii) चित्र में माँग वक्र के ठीक बीच में एक बिन्दु है जो रेखा को दो बराबर भागों में BE और BD में बाँट देता है। बिन्दु ऊपरी भाग में और बिन्दु निचले भाग में स्थित है।

(iii) माँग वक्र के जिस बिन्दु पर लोच निकालनी होती है उस बिन्दु के निचले भाग को ऊपरी भाग से भाग कर देते हैं। सूत्र के अनुसार,Description: कुल परिवर्तनशील लागत

माँग की लोच = माँग वक्र का नीचे का भाग / माँग वक्र का ऊपर का भाग

 

 

Part 4

31. विदेशी मुद्रा के वायदा बाजार तथा हाजिर (चालू) बाजार में अंतर करें। (Differentiate between Forward Market and Spot Market?)

उत्तर वायदा बाजार (Forward Market) — यह विदेशी मुद्रा का वह बाजार है जिसमें विदेशी करेंसी के क्रय-विक्रय का सौदा वर्तमान में हो जाता है पर करेंसी की देयता भविष्य में तयशुदा किसी तिथि पर होती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि विदेशी विनिमय से संबंधित वायदा बाजार वह बाजार है जिसमें भविष्य में किसी तिथि पर पूरे होने वाले लेन-देन का कारोबार होता है।

हाजिर बाजार (Spot Market) – यदि विदेशी मुद्रा बाजार में लेन-देन प्रकृति का है तो उसे हाजिर या चालू बाजार कहते हैं। इस प्रकार विदेशी विनिमय से संबंधित हाजिर बाजार का अर्थ उस बाजार है जिसमें केवल चालू या हाजिर लेनदेन किया जाता है।
इस बाजार का भविष्य के लेन-देन से कोई संबंध नहीं होता है। इस बाजार की प्रवृत्ति दैनिक होती है। विदेशी मुद्रा के हाजिर बाजार में लागू हो रही विनिमय दर को हाजिर दर कहा जाता है।

वायदा बाजार की मुख्य विशेषताएँ (Principal characteristics of forward market)-वायदा बाजार की मुख्य विशेषताएँ निम्न हैं-
(i) वायदा बाजार केवल भविष्य से संबंधित होता है।
(ii) वायदा बाजार की दूसरी प्रमुख विशेषता है कि यह भविष्य की विनिमय दर अर्थात् उस विनिमय दर को निर्धारित करता है जिसपर भविष्य में लेन-देन को पूरा किया जाना है।

हाजिर (चालू) बाजार की मुख्य विशेषताएँ (Principal characteristic of spot market)
हाजिर बाजार की मुख्य विशेषताएँ निम्न हैं 
(i) हाजिर बाजार दैनिक प्रकृति वाला होता हैइसका भविष्य के लेन-देन से कोई संबंध नहीं होता है।
(ii) हाजिर बाजार में जो विनिमय दर होती हैउसे तात्कालिक विनिमय दर कहा जाता है।
इस प्रकार वायदा बाजार और हाजिर बाजार के उपर्युक्त कई विशेषताएँ हैं।


32. स्थिर विनिमय दरों के गुण तथा दोषों की व्याख्या करें। (Explain merits and demerits of fixed exchange rates.)

उत्तर स्थिर विनिमय दरों के गुण (Merits of fixed exchange rates) – स्थिर विनिमय दरों के निम्न गुणों को इस प्रकार देखा जा सकता है-

(i) अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में वृद्धि (Increase in International Trade) – स्थिर विनिमय दर का प्रथम गुण यह है कि इससे अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में वृद्धि होती है।

(ii) विदेशी पूँजी को प्रोत्साहन (Incentive to foreign capital) – स्थिर विनिमय दर का दूसरा प्रमुख गुण यह है कि विनिमय दर में स्थिरता रहने से विदेशी पूँजी का आयात बढ़ता है जिससे देश के आर्थिक विकास में सहायता मिलती है।

(iii) पूँजी निर्माण में वृद्धि (Acceleration in capital formation)—स्थिर विनिमय दर का प्रमुख गुण यह है कि जब विनिमय दर में स्थिरता बनी रहती है तो उससे आंतरिक कीमत स्तर में भी स्थायित्व बना रहता है जिससे देश में पूँजी-निर्माण को प्रोत्साहन मिलता है।

(iv) आर्थिक नियोजन संभव (Economic planning possible)-स्थिर विनिमय दर द्वारा आर्थिक नियोजन संभव हो पाता है क्योंकि विनिमय दर स्थिर रहने पर सरकारी परियोजनाओं के व्यय निर्धारित मात्रा से अधिक नहीं होतेसरकार के आयात मूल्यों में भी भारी उतार-चढ़ाव नहीं आता।

(v) भुगतान संतुलन बनाये रखने में सहायक (Helps in maintaining favourable balance of payments) — स्थिर विनिमय दरों के कारणं विदेशी पूँजी आकर्षित होती हैऔद्योगिक विकास संभव होता है,रोजगार का विस्तार होता हैउत्पादन में वृद्धि होती है। इस सभी के फलस्वरूप देश का भुगतान संतुलन देश के अनुकूल हो जाता है।

दोष (Demerits)—स्थिर विनिमय दरों में निम्न दोष पाई जाती है-

(i) राष्ट्रीय हितों की अवहेलना (Ignores National Interest) — स्थिर विनिमय दर प्रणाली में एक प्रमुख दोष यह है कि अन्तर्राष्ट्रीय हित में राष्ट्रीय हितों की बलि करनी पड़ती है।

(ii) अनेक क्षेत्रों में नियंत्रण (Controls in various sectors) — स्थिर विनिमय दर प्रणली के अंतर्गत केवल विदेशी विनिमय और भुगतानों पर ही प्रतिबंध लगाना पर्याप्त नहीं है बल्कि अनेक प्रकार के अनुशासन उद्योगबैंकिंग व्यवसाय और विदेशी व्यापार आदि पर भी लागू करना पड़ता है।

(iii) विनिमय दर में आकस्मिक उच्चावचन (Sudden fluctuations in exchange rate)-स्थिर विनिमय दर बनाए रखने में जब कोई मुद्रा कमजोर हो जाती है तब उसका आकस्मिक अवमूल्यन कर दिया जता है।


33. कीमत रेखा क्या हैएक रेखाचित्र द्वारा समझाएँ। (What is price line ? Explain with figure.)

उत्तर कीमत रेखा किसी वस्तु के प्रचलित बाजार कीमत को दर्शाती है। यह रेखा एक समतल सीधी रेखा होती है जिसका किसी भी प्रतियोगी फर्म को सामना करना पड़ता है। एक फर्म इस कीमत पर अपनी वस्तु को जितनी मात्रा में चाहे बेच सकती हैं। जब फर्म अपना निर्यात बढ़ाता है तो यह अतिरिक्त इकाई बाजार कीमत पर बेची जाती है। अतएव प्रत्येक अतिरिक्त इकाई के बेचने से प्राप्त आय अर्थात् सीमांत आय (MR) और औसत आय (AR) कीमत के बराबर होते हैं। इसके फलस्वरूप सीमांत आयऔसत आय व कीमत रेखा एक ही समतल रेखा में मिल जाती है जो क्षैतिज अक्ष-के समानांतर होती है। इस रेखा को ही कीमत रेखा कहा जाता है। इसे हम नीचे के चित्र द्वारा देख सकते हैं-Description: कुल परिवर्तनशील लागत

ऊपर के रेखाचित्र में हम देख सकते हैं कि बाजार की मान दी हुई तथा पर स्थिर है। अतः हमें एक समतल सीधी रेखा प्राप्त होती है जो शीर्ष अक्ष-को Pबिन्दु पर काटती है। यह समतल सीधी रेखा कीमत रेखा कहलाती है।


34. भारत सरकार के बजट में प्रचलित निम्न धारणाओं की व्याख्या करें। (Explain the following concepts prevalent in the budget of Government of India.)
(
क) राजस्व घाटा (Revenue Deficit)
(
ख) राजकोषीयााrical Deficit
(
ग) प्राथमिक घाटा (Primary Deficit)

उत्तर (क) राजस्व घाटा (Revenue Deficit)- राजस्व घाटा से मतलब सरकार की राजस्व प्राप्तियाँ (कर राजस्व + गैर कर राजस्व) की तुलना में राजस्व व्यय ( योजना राजस्व व्यय + गैर योजना राजस्व व्यय ) के अधिक होने से है। सरकार जब प्राप्त किए गए राजस्व से अधिक व्यय करती है तो उसे राजस्व घाटा सहना पड़ता है।

सूत्र के रूप में
राजस्व घाटा = कुल राजस्व व्यय – कुल राजस्व प्राप्तियाँ।

(ख) राजकोषीय घाटा (Fiscal Deficit) — राजकोषीय घाटा का अर्थ सरकार के कुल व्यय (योजना व्यय + गैर योजना व्यय) का उधार रहित कुल प्राप्तियाँ (राजस्व प्राप्तियाँ + उधार बिना पूँजी प्राप्तियाँ) से अधिक हो जाना।

सूत्र के रूप में
राजकोषीय घाटा = कुल व्यय – उधार के बिना कुल प्राप्तियाँ = कुल व्यय – राजस्व प्राप्तियाँ – उधार रहित पूँजी प्राप्तियाँ।

राजकोषीय घाटे के संबंध में प्रमुख बात यह है कि इसमें उधार जो पूँजी प्राप्तियों का एक घटक है शामिल नहीं किया जाता है।

ग ) प्राथमिक घाटा (Primary Deficit) — प्राथमिक घाटे को राजकोषीय घाटा – (Minus) ब्याज अदायगियों के रूप में परिभाषित किया जाता है। हम कह सकते हैं। यह राजकोषीय घाटे से ब्याज की अदायगियों घटाने से शेष राशि के बराबर होता है।

सूत्र के रूप में
प्राथमिक घाटा = राजकोषीय घाटा – ब्याज अदायगियाँ।


35. सारणी की सहायता से सीमान्त उपयोगिता एवं कुल उपयोगिता के संबंध को बताएं। (Explain relationship between Marginal utility and Total utility.)

उत्तर सीमांत उपयोगिता एवं कुल उपयोगिता में संबंध-सीमांत उपयोगिता तथा कुल उपयोगिता में घनिष्ठ संबंध है। हम जानते हैं कि जैसे-जैसे किसी वस्तु की उत्तरोत्तर इकाइयों का उपभोग किया जाता है वैसे-वैसे उससे प्राप्त सीमान्त उपयोगिता घटती जाती है तथा कुल उपयोगिता में वृद्धि होती जाती है। कुल उपयोगिता की वह वृद्धि तब तक कायम रहती है जब तक सीमांत उपयोगिता शून्य नहीं हो जाती है। जब सीमांत उपयोगिता शून्य होती है तो कुल उपयोगिता अधिकतम होती है। When marginal utility is zero, total utility is maximum.
शून्य होने के बाद सीमांत उपयोगिता ऋणात्मक होने लगती है जिसके कारण कुल उपयोगिता भी घटने लगती है। इस प्रकार हम देख सकते हैं 

(i). सीमांत उपयोगिता के घटने के साथ-साथ कुल उपयोगिता तब तक बढ़ती है जब तक सीमांत उपयोगिता शून्य न हो जाए।
(ii). जब सीमांत उपयोगिता शून्य होती है तो कुल उपयोगिता अधिकतम होती है।
(iii). शून्य होने के बाद सीमांत उपयोगिता ऋणात्मक होने लगती है जिसके कारण कुल उपयोगिता भी घटने लगती है।

सीमांत उपयोगिता तथा कुल उपयोगिता के संबंध को तालिका द्वारा देखा जा सकता है-

रोटी की इकाइयाँ

सीमांत उपयोगिता

कुल उपयोगिता

1

16

16

2

12

28

3

08

36

4

04

40

5

0

40

6

-4

36

7

-8

28

तालिका से स्पष्ट है कि चौथी रोटी के उपभोग तक सीमांत उपयोगिता क्रमशः घटती जाती है लेकिन चूंकि तब तक सीमांत उपयोगिता धनात्मक रहती है। अतः कुल उपयोगिता में उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है। पाँचवीं रोटी के उपभोग से जब शून्य के बराबर सीमांत उपयोगिता मिलती है तो कुल उपयोगिता अधिकतम अर्थात् 40 के बराबर होती है। लेकिन इसके बाद छठी एवं सातवीं इकाइयों से क्रमशः -और –8 के बराबर सीमान्त उपयोगिता मिलती है तो कुल उपयोगिता क्रमशः घटती है अर्थात् 36 तथा 28 हो जाती है।


36. राजस्व घाटा से क्या समझते हैं इसे कम करने के प्रमुख उपाय बताएं। (What do you mean by Revenue Deficit ? Explain main remedies to Revenue Deficit.)

उत्तर जब सरकार का राजस्व व्यय इसकी राजस्व प्राप्तियों से अधिक हो जाता है तो इस अन्तर को राजस्व घाटा कहते हैं।
इस प्रकार Revenue Deficit = Revenue Expenditure-Revenue Receipts.
भारत में सत्तर के दशक के बीच तक सरकार की राजस्व प्राप्तियाँ उसके राजस्व व्यय से अधिक होती थी जिससे सरकार को राजस्व आधिक्य प्राप्त होता था लेकिन उसके बाद सरकार + बजट में बराबर राजस्व घाटा रहा है यानी सरकार का राजस्व उसकी राजस्व प्राप्तियों से अधिक रहा है।
राजस्व घाटे से हमें इस बात की जानकारी मिलती है कि सरकार किस फर्म के लिए ऋण ले रही है। राजस्व घाटे से पूरे किये गए व्यय से प्रायः सम्पत्ति अथवा विनियोग में वृद्धि नहीं होती। दूसरी ओर इस घाटे को पूरा करने के लिए प्राप्त ऋणों की अदाएगी का बोझ भविष्य में बढ़ जाता है क्योंकि विनियोग के माध्यम से कुछ भी लाभ प्राप्त नहीं होता।
राजस्व घाटा को कम करने के लिए निम्न उपाय किये जा सकते हैं 
(i) करों की दरों में वृद्धि करके सरकार अपनी राजस्व प्राप्तियों में वृद्धि करती है जिससे प्राप्तियाँ तथा व्यय का अंतर कम किया जा सकता है।
(ii) करों के आधार को विस्तृत करके भी सरकार अपनी राजस्व प्राप्तियों में वृद्धि करती है तथा प्राप्तियों एवं व्यय के अंतर को कम करने का प्रयास करती है।
(iii) सार्वजनिक व्यय में कटौती करके भी राजस्व घाटा को कम किया जा सकता है।


37. विनिमय दर से क्या अभिप्राय हैविदेशी विनिमय दर का निर्धारण कैसे होता है ? (What do you mean by Exchange Rate ? How is foreign exchange rate determined ?)

उत्तर विनिमय दर वह दर है जिसपर एक देश की एक मुद्रा इकाई का दूसरे देश की मुद्रा में विनिमय किया जाता है। विदेशी विनिमय दर यह बताती है कि किसी देश की एक इकाई के बदले में दूसरे देश की मुद्रा की कितनी इकाइयाँ मिल सकती है।
उदाहरण के लिए यदि एक अमेरिकन डालर का विनिमय, 68 भारतीय रुपये से हो तो डालर = 68 रुपया।

क्राउथर (Crowther) के अनुसारविनिमय दर एक देश की इकाई मुद्रा के बदले दूसरे देश की मुद्रा की मिलने वाली इकाइयों की माप है।
विदेशी विनिमय का निर्धारण-विदेशी विनिमय बाजार में मुद्रा का मूल्य अथवा विनिमय दर उसकी माँग एवं पूर्ति की सापेक्षिक शक्तियों के द्वारा निर्धारित होता है। इसे हम चित्र द्वारा देख सकते हैं Description: कुल परिवर्तनशील लागत

चित्र में OX रेखा पर विदेशी मुद्रा की माँग एवं पूर्ति को तथा OY रेखा पर विनिमय दर को दिखाया गया है। DD रेखा मुद्रा की माँग की रेखा तथा SS विदेशी मुद्रा की पूर्ति की रेखा है। चित्र में माँग की रेखा DD नीचे की ओर झुकती है। इसका मतलब यह है कि जैसे-जैसे विनिमय दर में वृद्धि होती है। वैसे-वैसे विदेशी विनिमय की कम माँग की जाती है। इसका कारण यह है कि विदेशी विनिमय के मूल्य में वृद्धि होने से विदेशी वस्तुओं की घरेलू मुद्रा के रूप में लागत बढ़ जाती है और वे अधिक महँगी हो जाती हैं। इसके फलस्वरूप आयातों में कमी होती है और विदेशी विनिमय की माँग घट जाती है।
चित्र में पूर्ति की रेखा SS ऊपर की ओर उठती है। इसका मतलब यह है कि जैसे-जैसे विनिमय दर में वृद्धि होती है वैसे-वैसे विदेशी विनिमय की पूर्ति बढ़ती जाती है। इसके फलस्वरूप विदेशियों के लिए घरेलू वस्तुएँ सस्ती हो जाती है। क्योंकि घरेलू मुद्रा के मूल्य में कमी आ जाती है। अतः जब विनिमय दर में वृद्धि होती है तो देश के निर्यात की माँग बढ़ जाती है जिससे विदेशी विनिमय की पूर्ति भी बढ़ती है।


38. औसत आय और सीमांत आय के बीच संबंध की व्याख्या करें। (Explain Relationship between Average Revenue and Marginal Revenue.)

उत्तर औसत आय (AR) — बेची गयी वस्तु की प्रति इकाई के आय को औसत आय कहते हैं।Description: कुल परिवर्तनशील लागत

सीमांत आय (MR)—वस्तु की एक अतिरिक्त इकाई बेचने से कुल आय में जो वृद्धि होती हैउसे सीमांत आय कहते हैं।

दोनों में संबंध  औसत आय और सीमांत आय में साधारण संबंध
(i) औसत आय (AR) तब तक बढ़ता है जब तक सीमांत आय (MR) औसत आय (AR) से अधिक है। वैकल्पिक रूप में जब सीमांत आय (MR)= औसत आय (AR) तो औसत आय (AR) बढ़ता है।

(ii) औसत आय तब अधिकतम और स्थिर होता है जब सीमांत आय (MR), औसत आय (AR) के बराबर होता है। वैकल्पिक रूप में जब सीमांत आय (MR) = औसत आय (AR) तो औसत आय (AR) अधिकतम होता है।

(iii) औसत आय (AR) तब गिरता है जब सीमांत आय (MR), औसत आय (AR) से कम . होता है। वैकल्पिक रूप में जब सीमांत आय (MR), औसत आय (AR) से कम होता है। वैकल्पिक रूप में जब सीमांत आय (MR) < औसत आय (AR) तो औसत आय (AR) गिरता है। ____सीमांत आय (MR) ऋणात्मक हो सकता है लेकिन औसत आय (AR) कभी भी ऋणात्मक नहीं हो सकता है।
हम रेखाचित्र द्वारा दोनों के बीच संबंध को देख सकते हैं।Description: कुल परिवर्तनशील लागतचित्र में स्पष्ट है कि औसत आय (AR) वक्र तब तक ऊपर उठता है जब तक सीमांत आय (MR) > औसत आय (AR) से अधिक है। औसत आय (AR) वक्र बिन्दु तक उठता है जहाँ गिरता हुआ सीमांत आय (MR) वक्र उसे काटता है। इस बिन्दु पर सीमांत आय (MR) = औसत आय (AR) गिरता हुआ सीमांत आय (MR) ऋणात्मक हो सकता है परंतु औसत आय (AR) हमेशा धनात्मक रहती है।

संक्षेप में हम कह सकते हैं रेखाचित्र यह दर्शाता है कि (i) औसत आय (AR) तब तब बढ़ते है जब तक सीमांत आय (MR)> औसत आय (AR) (ii) औसत आय (AR) अधिकतम होता है जब सीमांत आय (MR) = औसत आय (AR) (iii) औसत आय (AR) तब गिरने लगता है जब सीमांत आय औसत आय (AR)


39. परिवर्तनशील अनुपात के नियम की व्याख्या कीजिए। ( Explain Relationship betbeen Average Revenue Marginal Revenue.)

उत्तर परिवर्तनशील अनुपात के नियम को आधुनिक अर्थशास्त्री ने अलग-अलग तरीके से इस नियम को परिभाषित किया गया है-
स्टिगलर के अनुसार, “जब कुछ उत्पत्ति साधनों को स्थिर रखकर एक उत्पत्ति साधन की इकाइयों में समान वृधि की जाए तब एक निश्चित बिंदु के बाद उत्पादन की उत्पन होने बाली व्रिधिया कम हो जाएगी अर्थात सीमांत उत्पादन घाट जाएगा ।

नियम की मान्यताएँ (Assumptions of the law)-
(i).एक उत्पत्ति साधन परिवर्तनशील है तथा अन्य स्थिर
(ii). परिवर्तनशील साधन की समस्त इकाइयाँ समरूप होती है।
(iii). तकनीकी स्तर में कोई परिवर्तन नहीं होता
(iv). स्थिर साधन अविभाज्य है।
(v). विभिन्न उत्पत्ति साधन अपूर्ण स्थानापन्न होते हैं।
(vi). स्थिर साधन सीमित एवं दुर्लभ है।

परिवर्तनशील अनुपात के नियम की तीन अवस्थाओं को स्पष्ट करती है। उत्पत्ति के बढ़ते प्रतिफल की अवस्था 
प्रथम अवस्था में स्थिर साधन के साथ जैसे-जैसे परिवर्तनशील साधन की इकाइयाँ प्रयोग में बढ़ायी जाती है हमें बढ़ता हुआ उत्पादन प्राप्त होता है जिसका मुख्य कारण है कि परिवर्तनशील साधन बढ़ने पर स्थिर साधनों का पूर्ण प्रयोग संभव हो पाता है।
दूसरी अवस्था घटते प्रतिफल की अवस्था होती हैइस अवस्था में औसत उत्पादन (AP) : तथा सीमांत उत्पादन (MP) दो घट रहे होते हैं। इस अवस्था का समापन उस बिन्दु पर होता है जहाँ सीमान्त उत्पादकता (MP) शून्य हो जाती है। इस अवस्था में कुल अवस्था में कुल उत्पादन (TP) भी बढ़ता है किन्तु घटती दर से बढ़ता है।
तीसरी अवस्था ऋणात्मक प्रतिफल की अवस्था होती है इस तीसरी अवस्था में सीमान्त उत्पादन (MP) शून्य से कम अर्थात् ऋणात्मक हो जाता है। इसमें सीमान्त उत्पादकता (MP) के ऋणात्मक हो जाने के कारण कुल उत्पादकता (TP) घटने लगती है।


40. पूर्ण प्रतियोगिता तथा एकाधिकृत प्रतियोगिता के अंतर्गत मूल्य निर्धारण में अंतर स्पष्ट कीजिए। (Clarify the difference between perfect competition and monopolistic com petition in price determined.)

उत्तर पूर्ण प्रतियोगिता बाजार की अवस्था है जिसमें क्रेताओं व विक्रेताओं की संख्या बहुत अधिक होती है। जबकि एकाधिकृत प्रतियोगिता में भी विक्रेताओं की संख्या अधिक होती है लेकिन पूर्ण प्रतियोगिता की तुलना में कम होती है। दोनों ही बाजार अवस्थाओं में संतुलन वहाँ प्राप्त होता है जहाँ सीमांत आय (MR) तथा सीमांत लागत (MC) दोनों एक-दूसरे के बराबर होते हैं।
दोनों ही बाजार अवस्थाओं में मल्य निर्धारण के लिए अल्पकाल में लाभ सामान्य लाभ तथा हानि प्राप्त हो सकती हैजबकि दीर्घकाल में दोनों ही बाजार अवस्थाओं में केवल सामान्य लाभ ही प्राप्त होता है। लेकिन फिर भी बाजार अवस्थाओं में मूल्य निर्धारण में कछ अंतर देखने
को मिलता है।
(i). पूर्ण प्रतियोगिता में माँग वक्र (अर्थात् औसत आगम = (AR) पूर्णतः मूल्य सापेक्ष होता है। यही कारण है कि उसे एक पड़ी रेखा द्वारा प्रदर्शित किया जाता हैपरंतु एकाधिकृत प्रतियोगिता में माँग वक्र पूर्णतः मूल्य सापेक्ष नहीं होता वरन् बाएँ से दाएँ नीचे की ओर गिरता हुआ होता है।

(ii). पूर्ण प्रतियोगिता में जहाँ औसत आगम (AR) सीमांत आगम (MR) के बराबर होता हैएकाधिकृत प्रतियोगिता में AR, MR से अधिक होता है।

(iii). पूर्ण प्रतियोगिता में उत्पादक या विक्रेता की अपनी कोई कीमत नीति (Price Policy) नहीं होतीअर्थात् उसे बाजार में प्रचलित मूल्य ही स्वीकार करना पड़ता हैजबकि एकाधिकृत प्रतियोगिता में हर उत्पादक अपनी स्वतंत्र कीमत नीति (Price Policy) अपना सकता है।

(iv). पूर्ण प्रतियोगिता में सभी फर्में एक जैसी वस्तुओं का उत्पादन करती हैंपरंतु एकाधिकृत प्रतियोगिता में वास्तविक या काल्पनिक वस्तु विभेद (Product Differentiation) पाया जाता है।

(v). पूर्ण प्रतियोगिता में सीमान्त लागतसीमान्त आगम तथा औसत आगम के बराबर होती है अर्थात् MC = MR = AR । परिणामतः उत्पादक को केवल सामान्य लाभ की प्राप्ति होती हैलेकिन एकाधिकृत प्रतियोगिता में सीमांत आगम सीमान्त लागत के बराबर होती है (MR = MC) परंतु औसत आगम (AR) से अधिक होता है।

(vi). एकाधिकृत प्रतियोगिता में पूर्ण प्रतियोगिता की तुलना में उत्पादन कम मात्रा में होता है।
इसी प्रकार पूर्ण प्रतियोगिता में MR = AR = AC की स्थिति होती है तथा एकाधिकृत प्रतियोगिता में MR = MC तो होता हैपरंतु MR तथा MC से AR (औसत आगम) अधिक होता है।

Part 5

41. स्फीतिक अंतराल क्या है अतिरेक माँग के कारणों को बताएं। (What is Inflationary gap ? Explain reasons of arising excess demand ?)

उत्तर किसी अर्थव्यवस्था में पूर्ण रोजगार संतुलन की स्थिति को बनाए रखने के लिए जितनी सामूहिक माँग की आवश्यकता पड़ती हैउससे अधिक सामूहिक माँग के अंतर के माप को स्फीतिक अंतराल कहते हैं।
सामूहिक माँग सामूहिक पूर्ति से जितनी अधिक होती हैउस अंतर को स्फीतिक अंतराल कहते हैं।
स्फीतिक अंतराल की स्थिति में अर्थव्यवस्था में उत्पादन में वृद्धि नहीं होती केवल कीमतों में वृद्धि होती है। पूर्ण रोजगार की स्थिति में उत्पादन स्थिर हो जाता है। केवल कीमतों में वृद्धि होने लगती है। अर्थव्यवस्था में स्फीतिक दबाव उत्पन्न होने लगता है।
चित्र के द्वारा हम देख सकते हैं-Description: कुल परिवर्तनशील लागत

चित्र में AS वक्र बिन्दु के बाद यह प्रकट करती है कि अर्थव्यवस्था में वस्तुओं तथा सेवाओं की अतिरिक्त पूर्ति संभव नहीं है। यदि कुल माँग में वृद्धि होती है तो यह अत्यधिक माँग का स्तर होगा। चित्र में यदि माँग AD से बढ़कर AD, होती है तो AD, तथा AD, का अंतर EF है जो स्फीतिक अंतराल को बताता है। – अतिरेक माँग के कारण E, बिन्दु नया संतुलन बिन्दु होगा। रोजगार का स्तर OY ही है। उन्हीं वस्तु तथा सेवाओं की पूर्ति के लिए कुल माँग में वृद्धि हो रही है जिसके कारण पूर्ण रोजगार संतुलन बिन्दु पर वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि होगी।

अतिरेक माँग के कारण  किसी भी देश में अतिरेक माँग की स्थिति निम्नलिखित कारणों से उत्पन्न हो सकता है 

(i). सार्वजनिक व्यय में वृद्धि के कारण सरकार द्वारा की जाने वाली वस्तुओं व सेवाओं की माँग में वृद्धि।
(ii). करों में कमी के परिणामस्वरूप व्यय योग्य आय एवं उपभोग माँग में वृद्धि।
(iii). हीनार्थ प्रबंध के फलस्वरूप मुद्रा पूर्ति में वृद्धि।
(iv). साख विस्तार से माँग में वृद्धि
(v). विनियोग माँग में वृद्धि
(vi). उपभोग प्रवृत्ति में वृद्धि के फलस्वरूप उपभोग माँग में वृद्धि
(vii). निर्यात के लिए वस्तुओं की माँग में वृद्धि। इस प्रकार उपरोक्त कई कारण हैं जो अतिरेक माँग में वृद्धि के कारण हैं।


42. निवेश गुणक क्या हैगुणक एवं सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति में क्या संबंध है ? (What is Investment multiplier ? What is the relation between multiplier and marginal propensity to consume (MPC)?)

उत्तर केन्स का गुणक का सिद्धांत निवेश तथा आय के बीच संबंध स्थापित करता है इसलिए इसे निवेश गुणक कहा जाता है। गुणक की धारणा निवेश में प्रारंभिक परिवर्तन के परिणामस्वरूप आय में होने वाले अंतिम परिवर्तन के संबंध को व्यक्त करती है। गुणक निवेश में होने वाले परिवर्तन के कारण आय में होने वाले परिवर्तन का अनुपात है।
केन्स के अनुसार, “निवेश गुणक से ज्ञात होता है कि जब निवेश में वृद्धि की जाएगी तो आय में वृद्धि होगीवह निवेश में होने वाली वृद्धि से गुणा अधिक होगी।
इस प्रकार स्पष्ट है कि विनियोग में हुई वृद्धि के कारण आय में होने वाली वृद्धि का अनुपात गुणक है। इसलिए केन्स का गुणक विनियोग या आय गुणक के नाम जाता है।

निवेश गुणक को निम्न सूत्र द्वारा देखा जा सकता है-

K = ∆Y/∆I
यहाँ , K = गुणक, ∆N = निवेश में परिवर्तन, ∆Y = आय में परिवर्तन।

निवेश गुणक एवं सीमांत उपभोग प्रवृत्ति में संबंध  केन्स का निवेश गुणक सीमांत उपभोग प्रवृत्ति पर निर्भर करता है। यदि सीमांत उपभोग प्रवृत्ति अधिक है तो गुणक भी अधिक होगा। इसके विपरीत यदि सीमांत उपभोग प्रवृत्ति कम है तो गुणक भी कम होगा। इस प्रकार गुणक और सीमांत उपभोग प्रवृत्ति में सीधा संबंध होता है।


43. पूर्ति की मूल्य लोच की परिभाषा दीजिए। इसे मापने की विधियों की व्याख्या करें। (Define price elasticity of supply. Explain the methods of measuring it.)

उत्तर किसी वस्तु के मूल्य में परिवर्तन के फलस्वरूप जिस गति या दर से उसकी पूर्ति में परिवर्तन होता है उसे पूर्ति की लोच कहा जाता है।

सैम्युलसन के अनुसार, “पूर्ति की लोच किसी वस्तु के मूल्य में परिवर्तन के फलस्वरूप उसकी पूर्ति की लोच की मात्रा है।
“Elasticity of supply is the degree of the responsiveness of supply of a commodity to a change in its price.”Description: कुल परिवर्तनशील लागत

पूर्ति की लोच की माप  पूर्ति की लोच की माप पूर्ति की लोच की माप की मुख्यतः दो विधियाँ हैं 

(i) प्रतिशत विधि (Percentage method) — कीमत में प्रतिशत अंतर और पूर्ति में प्रतिशत अंतर के अनुपात से हम पूर्ति की लोच मापते हैं।

सूत्र के रूप में Description: कुल परिवर्तनशील लागत

(ii) ज्यामितीय विधि (Geometric method) — इस विधि का प्रयोग पूर्ति वक्र पर स्थित किसी बिन्दु पर पूर्ति की लोच मापने के लिए किया जाता है। इसलिए इस विधि को बिंदु विधि भी कहा जाता है। यह विधि सीधी लकीर वाले पर्ति वक्र पर स्थित बिन्दु पर ES मापी जाती है।Description: कुल परिवर्तनशील लागत

चित्र में तीन सरल रेखीय पूर्ति वक्र बनाया गया है जिनमें OP कीमत पर पूर्ति की मात्रा 00 दिखाई गयी है। पूर्ति वक्र के बिन्दु पर पूर्ति की कीमत लोच मापनी है। ज्यामितीय विधि द्वारा समतल खंड को पति की मात्रा से भाग देकर पति की लोच निकाली जाती है।


44. पूर्ति का नियम क्या हैपूर्ति पर कीमत का क्या प्रभाव पड़ता है ? (What is Law of Supply ? What is the effect of price on Supply ?)

उत्तर अन्य बातें समान रहने परवस्तु की कीमत वृद्धि पूर्ति को बढ़ाता है तथा वस्तु कीमत में कमी पूर्ति को घटाता है। इस प्रकार वस्तु कीमत तथा वस्तु पूर्ति में प्रत्यक्ष तथा सीधा संबंध पाया जाता है।
फलन के रूप में S = f(P)
पूर्ति का नियम यह बताता है कि अन्य बातें समान रहने पर जितनी कीमत अधिक होती है उतनी ही पूर्ति अधिक होती है या जितनी कीमत कम होती है उतनी ही पूर्ति कम होती है।
“The law of Supply States, othere things remaining constant, the higher the price, the greater the quantity supplied or the lower the price, the smallar the quantity supplied.’

पूर्ति का नियम वस्तु की कीमत एवं उसकी पूर्ति के बीच धनात्मक संबंध बताता है। जिसके कारण पूर्ति वक्र का ढाल बायें से दायें ऊपर की ओर चढ़ता हुआ होता है।
पूर्ति का नियम निम्न मान्यताओं पर आधारित है।
(i) बाजार में क्रेताओं और विक्रेताओं के आय स्तर में कोई परिवर्तन नहीं होना चाहिए।
(ii) स्थानापन्नों की कीमतों में परिवर्तन नहीं होनी चाहिए।
(iii) उत्पत्ति के साधनों की कीमतें स्थिर होनी चाहिए।
(iv) तकनीकी ज्ञान का स्तर स्थिर होनी चाहिए।
(v) सरकारी नीति में कोई परिवर्तन नहीं होनी चाहिए।
(vi) क्रेता तथा विक्रेता की रुचिफैशनआदत में परिवर्तन नहीं होनी चाहिए।

अपवाद (Eception) — पूर्ति के नियम के कुछ अपवाद निम्न हैं 

(i). कृषि वस्तुओं पर यह नियम अनिवार्य रूप से लागू नहीं होती है। अनेक प्राकृतिक आपदाओं जैसे सूखाबाढ़ओलावृष्टि के कारण कृषि उत्पादित वस्तुओं की कीमतें बढ़ने पर भी उनकी पूर्ति को नहीं बढ़ाया जा सकता।

(ii). नाशवान वस्तुओं पर पूर्ति का नियम लागू नहीं होता है।

(iii). सामाजिक प्रतिष्ठा वाली वस्तुओं पर भी यह नियम लागू नहीं होता है।
पूर्ति का कीमत पर प्रभाव पड़ता है। कीमत में परिवर्तन होने से पूर्ति में परिवर्तन होता रहता है। यह परिवर्तन पूर्ति के नियम के अनुरूप ही होते हैं। कीमत के कम होने पर पूर्ति में कमी तथा कीमत के बढ़ने पर पूर्ति में वृद्धि होती है। लेकिन कीमत में परिवर्तन होने पर उसकी पूर्ति में परिवर्तन होता है।


45. प्रत्यक्ष कर के गुण-दोष का वर्णन करें। (Explain merits and demerits of Direct taxes.)

उत्तर प्रत्यक्ष कर के गुण (Merits of Direct tax)—प्रत्यक्ष कर के निम्न प्रमुख गुण हैं-

(i) निश्चितता  प्रत्यक्ष कर के प्रमुख गुण यह है कि करदाता और सरकार दोनों ही यह जानते हैं कि उन्हें कितनी राशि देनी है और लेनी है।
(ii) मितव्ययी  प्रत्यक्ष कर करदाता द्वारा सीधे सरकार के हाथों में पहुँच जाते हैं।
(iii) न्यायशीलता  प्रत्यक्ष कर समानता के सिद्धान्त की पूर्ति करते हैं क्योंकि इन्हें नागरिकों की कर दान क्षमता के आधार पर गतिशील बनाया जा सकता है।
(iv) लोचदार  एक अच्छे कर की विशेषता यह है कि आवश्यकतानुसार आय में कमी या वृद्धि की जा सके।
(v) उत्पादकता  प्रत्यक्ष करों से प्राप्त आय का उपयोग देश के आर्थिक विकास में किया जाता है।
(vi) प्रगतिशील  प्रत्यक्ष करों में धनी व्यक्तियों को निर्धन व्यक्तियों की तुलना में अधिक कर देना पड़ता है।

प्रत्यक्ष कर के दोष (Demerits of Direct tax) — इसके निम्न दोषों को इस प्रकार देखा जा सकता है 

(i) करों की चोरी  प्रत्यक्ष कर के भार को कम करने के लिए करदाता अनेक प्रकार की बेईमानी करता है।
(ii) असविधाजनक  प्रत्यक्ष कर में करदाता को बहुत असुविधा होती है क्योंकि करदाता को इनका भुगतान करने में कई औपचारिकताओं को पूरा करना पडता है।

(iii) कर की मनमानी दरें  कर निर्धारण अधिकारी द्वारा कर की दरें निर्धारित होती है।

(iv) करदाता को मानसिक कष्ट  प्रत्यक्ष कर से करदाता को शारीरिक कष्ट के साथ मानसिक कष्ट भी होता है क्योकि उसे कर का भुगतान अपनी आय से करना पड़ता है।

(v) उत्पादन पर कुप्रभाव  प्रत्यक्ष करों का उत्पादन पर बुरा प्रभाव पड़ता है।


46. अप्रत्यक्ष कर के गण-दोष को बताएँ।। (Explain merits and demerits of Indirect taxes.)

उत्तर अप्रत्यक्ष कर के गुण-दोष (Merits and demerits of indirect tax)
Merits of indirect tax-अप्रत्यक्ष करों के निम्न गुण हैं 

(i) ये सुविधाजनक होते हैं  इन करों का भुगतान वस्तुओं के खरीदने के समय करना होता है और चूँकि वस्तुएँ एक बार बहुत बड़ी मात्रा में नहीं खरीदी जाती।

(ii) कर से बचना प्रायः कठिन होता है  क्योंकि ये वस्तु को खरीदते समय वस्तु-विक्रेता को ही दिए जाते हैं।

(iii) ये कर प्रत्येक नागरिक से वसल किए जाते हैं  ज्य की सहायता प्रत्येक नागरिक को करनी चाहिए। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए धनी और निर्धन प्रत्येक तक पहुंचने का परोक्ष कर एक वस्तुओं को खरीदते समय कर देना पड़ता है।

(iv). यह कर लोचदार होता है।
(v). इस प्रकार के करों से सामाजिक लाभ प्राप्त होता है।
(vi). कर प्रणाली का आधार विस्तृत होता है।

अप्रत्यक्ष करों के निम्न दोष देखे जा सकते हैं (Demerits of indirect tar)-
(i) अप्रत्यक्ष कर करदान योग्यता पर निर्भर नहीं है  अप्रत्यक्ष करों में धनी और निधन दोनों ही वर्गों को कर लगी हई वस्त का उपयोग करने पर कर का भगतान समान दर से करना पड़ता है जिससे व्यवहार में ये कर प्रतिगामी हो जाते हैं।

(ii). अप्रत्यक्ष करों से समाज में आर्थिक विषमता फैलती है।

(iii) अप्रत्यक्ष कर प्रायः अनिश्चित होते हैं  अनिवार्यताओं पर लगे कर को छोड़कर अन्य करों से प्राप्त होने वाली आय प्रायः अनिश्चित होती है।

(iv) अप्रत्यक्ष करों में मितव्ययिता नहीं रहती  इन करों को वसूल करने में खर्च अधिक पड़ता है।

(v) इनका उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है  अप्रत्यक्ष करों का उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

प्रत्यक्ष कर एवं अप्रत्यक्ष करों के गुण-दोषों के बाद हम इस निष्कर्ष पर आते हैं। किसी देश की कर प्रणाली को न्यायपूर्ण बनाने के लिए इन दोनों ही प्रकार के करों को लगाना चाहिए।


47. भुगतान शेष में असंतुलन के कारण कौन-कौन से हैं ? (Explain the reasons of adverse balance of payments.)

उत्तर भुगतान शेष में असंतुलन के कारण  भुगतान शेष में असंतुलन के कारणों को चार वर्गों में बाँटा जा सकता है 
(i) प्राकृतिक कारण; (ii) आर्थिक कारण, (iii) राजनैतिक कारण, (iv) सामाजिक कारण।

(i) प्राकृतिक कारण  भुगतान शेष के असंतुलन होने के कारण प्राकृतिक है। प्राकृतिक कारण . जैसे कि भूकंपअकालसूखा इत्यादि भुगतान संतुलन में असंतुलन उत्पन्न कर देते हैं।

(ii) आर्थिक कारण  आर्थिक कारण के अंतर्गत भगतान शेष के असंतलन के निम्न कारण को देख सकते हैं-
(a) विकास व्यय  विकासशील देशों में बड़े पैमाने पर विकास व्यय के लिए भारी मात्रा में आयात किये जाते हैं।
(b) व्यापार चक्र  अर्थव्यवस्था में व्यावसायिक क्रियाओं में होने वाले उतार चढ़ाव के कारण निर्यातों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
(c) बढ़ती कीमतों के कारण भी भुगतान संतुलन में असंतुलन उत्पन्न हो जाता है।
(d) आयात प्रतिस्थापन के कारण आयातों में कमी हो जाती है जिसके कारण भुगतान संतुलन में घाटा कम हो जाता है।
(e) अन्य आर्थिक कारण  दूसरे देशों में पूर्ति के नये स्रोतोंनई और शेष प्रतियोगी वस्तुओं की खोज से देश के निर्यातों में कमी आती है।

(iii) राजनीतिक कारण  भुगतान संतुलन को असंतुलित करने वाले प्रमुख राजनीति कारण निम्न हैं 
(a) अधिक सुरक्षा व्यय के कारण भुगतान संतुलन में असंतुलन पैदा हो जाता है।
(b) अंतर्राष्ट्रीय संबंध – देश के अंतर्राष्ट्रीय संबंध मधुरखिंचावपूर्णतनावपूर्ण एवं युद्धमय हो सकते हैं।
(c) दूतावासों का विस्तार  दूतावासों के विस्तार व उनके रख-रखाव पर किया गया ऊँचा व्यय देश के लिए आयात तुल्य होता है।
(d) राजनीतिक अस्थिरता  देश की राजनीतिक अस्थिरता भी देश के भुगतान संतुलन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

(iv) सामाजिक कारण  सामाजिक संरचना एवं सामाजिक मानदंडों में परिवर्तन के कारण लोगों की रुचिस्वभाव और फैशन में परिवर्तन आ सकता है।
इस प्रकार उपरोक्त कई कारण है जिसके चलते भुगतान असंतुलन की स्थिति पैदा हो जाती है।


48. भुगतान संतुलन क्या हैप्रतिकूल भुगतान संतुलन को सुधारने के क्या उपाय हैं ? (What is Balance of Payments ? What are methods to correct adverse Balance of payment ?)

उत्तर भुगतान संतुलन का संबंध किसी देश के शेष विश्व के साथ हुए सभी आर्थिक लेन-देन के लेखांकन के रिकार्ड से है।

भुगतान संतुलन की परिभाषा  बेन्हम के अनुसार किसी देश का भुगतान शेष किसी दिए समय में सारे संसार के साथ उसके लेन-देन का लेखा है।

प्रतिकूल भुगतान संतुलन को सुधारने के उपाए  प्रत्येक देश अपने अपने भुगतान संतुलन को सुधारने के लिए निम्न उपाए करते हैं 

(i) निर्यातों में वृद्धि (Increasing in exports) – भुगतान संतुलन के प्रतिकूलता को ठीक करने के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण उपाए निर्यात में वृद्धि करना है।

(ii) आयात प्रतिस्थापन (Import substitution)-आयात की जाने वाली वस्तुओं का स्थान लेने वाली अर्थात् प्रतिस्थापित वस्तुएँ देश के अंदर निर्माण करनी चाहिए जिससे आयात कम हो सके।

(iii) घरेलू करेंसी का अवमूल्यन (Devaluation of domestic currency) – जब घरेलू मुद्रा
का विदेशी मुद्रा में मूल्य घटाया जाता है तो विदेशियों के लिए हमारी घरेलू वस्तुएं सस्ती हो जाती है।

(iv) विनिमय नियंत्रण (Exchange control) — सरकार ने सब निर्यातकों को विदेशी मुद्रा केंद्रीय बैंक में समर्पण करने के लिए विदेशी विनिमय पर नियंत्रण करना चाहिए।

(v) मुद्रा संकुचन (Deflation)—मुद्रा संकुचन द्वारा भी भुगतान संतुलन की प्रतिकूलता को कम किया जा सकता है।

(vi) विदेशी सहायता (External Assistance)—विदेशों से ऋण अथवा सहायता लेकर भी भुगतान संतुलन की प्रतिकूलता को ठीक किया जा सकता है। विदेशी व्यक्तियोंबैंकोंसरकारों एवं विश्व बैंक तथा मुद्रा कोष से ऋण लेकर अल्पकाल में भगतान संतलन की प्रतिकूलता को ठीक किया जा सकता है। इस प्रकार उपरोक्त उपायों द्वारा भुगतान संतुलन के प्रतिकूलता को सधारा जा सकता है।


49. उत्पत्ति ह्रास नियम क्या हैयह क्यों लागू होती है ?
(What is law of Diminishing Return? Why does this law become operative ?)

उत्तर इस नियम का प्रतिपादन सबसे पहले टरगो (Turgot) ने की थी।
मार्शल ने इस सिद्धांत की व्याख्या कृषि के संदर्भ में की है। उनके अनुसार, “यदि कृषि कला में कोई सुधार नहीं तो भूमि पर उपयोग की जाने वाली पूँजी एवं श्रम की मात्रा में वृद्धि करने से कुल उपज़ में सामान्यतः अनुपात से कम वृद्धि होती है।
इस बिन्दु के बाद जैसे-जैसे परिवर्तनशील साधन की इकाइयों में वृद्धि की जाती है वैसे-वैसे सीमांत उत्पादन गिरता जाता है।
श्रीमती जॉन राबिन्सन के अनुसार, “उत्पत्ति ह्रास नियम यह बताता है कि यदि किसी एक उत्पत्ति के साधन की मात्रा को स्थिर रखा जाए तथा अन्य साधनों की मात्रा में उत्तरोत्तर वृद्धि की जाए तो एक निश्चित बिन्दु के बाद उत्पादन में घटती दर से वृद्धि होती है।

मान्यताएँ (Assumptions) – इस नियम की निम्न मान्यताएँ हैं 
(i). एक उत्पत्ति साधन परिवर्तनशील है तथा अन्य स्थिर।
(ii). परिवर्तनशील साधन की समस्त इकाइयाँ समरूप होते हैं।
(ii). तकनीकी स्तर में कोई परिवर्तन नहीं होता।
(iv). स्थिर साधन अविभाज्य है।
(v). विभिन्न उत्पत्ति साधन अपूर्ण स्थानापन्न होते हैं।
(vi). स्थिर साधन सीमित एवं दुर्लभ है।

उत्पत्ति हास नियम लागू होने के कारण  इस नियम के लागू होने के निम्न प्रमुख कारण हैं 
(i) साधनों की निश्चित पूर्ति  जिसके कारण उत्पत्ति ह्रास नियम लागू होता है।
(ii) साधनों के आदर्श प्रयोग का अभाव  अभाव में उत्पत्ति ह्रास नियम लागू होता है।
(iii) साधनों के बीच अपूर्ण स्थानापन्नता का होना  उत्पत्ति ह्रास नियम लागू होने का कारण माना जाता है।
(iv) कृषि तथा प्राथमिक क्षेत्र में प्रकृति की प्रधानता द्वारा  उत्पत्ति ह्रास नियम क्रियाशील होने लगता है।

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